
मुझे लगता है पहली ही पोस्ट ने नर और नारी दोनों को "उल्टा तीर" ने भेद लिया है. तीर वही जो घायल कर दे... की तर्ज़ पर पुरुषों के बीच खामोशी का ज़लज़लेसार संगीत बज उठा है तो वहीं स्त्रियाँ तिलमिला गयीं हैं, इस घोर कड़वी (उन्हें लगता है शायद) वाणी से-कि या क्या कह दिया है लिख दिया है? तो वहीं कुछ लेखिकाएँ वास्तव में हल की ओर रुख करने हेतु अपने विचारों को व्यक्त कर रही हैं. जिससे स्पष्ट होता है कि नारी को वास्तव में आरक्षण, आजादी, परिवार इत्यादी मसलों के लिए उचित व अनुचित क्या लग रहा है ...वो कह रही हैं...मगर पुरुष न तो बोल ही रहा है और न सुन ही रहा है...बस देख रहा है...शायद यही कि "उल्टा तीर" पर इक़ बालक का ये विषय-बहस में कोई सार्थकता है कि नहीं और फिर इसका निष्कर्ष वन टू वन टू ही होगा या फिर बंद कर दिया जायेगा या कुछ निकल कर भी आएगा। जिसके उल्टे तीरों ने सचमुच इक़ बारगी तो सभी को घायल कर रखा है, मनो या न मनो की तर्ज़ पर। इसीलिए न आह! की आवाज़ होती है न थाह के कदम मिल रहे हैं।"क्या नारीवाद का विचार मक्कार पुरुषों की देन है?" पर पिछले कई दिनों से चुप्पी छाई हुई है। लोग आते-जाते हैं, देखते हैं "हाले-वार्ता" अब क्या है? और चले जाते हैं...यूँ तो उन्हें गालियाँ देने तक की जरुरत नहीं लगती...तो इसका मर्म वो क्या खाक समझेंगे?।
इस बहस के संबंध में २-४ जगह और भी लिखा गया है, जो दर्शाता है कि इसे अपना ही मुद्दा समझ; उचित -अनुचित के भले के लिए संवेदनाएं तो निकल रही हैं...लेकिन थोडी दूर चलते ही न भाव का पता चलता है न निष्कर्ष की ओर कोई कदम बढता है। ये वो कदम है जो राजनीती व कानूनों के नक्शे-कदम पर ही चलना सीख पायेंगे, इन्हें जबरन बेल की तरह हांका जायेगा तब ये न चाहकर भी इस राह पे चलते जायेंगे। यूँ तो इस बहस का इसका कतरा-कतरा हममें ही डूबा है...मगर हम खुदको इससे बचाकर कोई सीधा तीर चलाने में कामयाब हो रहे हैं...जो शायद भलाई के रास्ते प्रदान करता हो, मगर ये बचकाना ही है., ये महज़ दुबकने की प्रक्रिया है, जो बिना धमाकों के आंसू तक नहीं लाती। मानवीय भलाई के लिए बहस आज समाज की इक़ बड़ी ज़रूरत है।
कुछ लोगों को तो वास्तव में "बहस" है क्या और क्यों इस बात का भी इल्म नहीं लगता! मगर वो लिख रहे हैं कि कुछ लोग (स्त्री-पुरूष) नारी को लेके न जाने कौन सी राजनीति पढ़-पढा रहे हैं...नारियों के खिलाफ जा रहे हैं...(इकदम नकारने वाली बेहूदगी;-बुरा बेशक लगे...और अगर यूँ भी हो तो मैं जानता हूँ की ब्लड प्रेसर का स्तर बढेगा...पर उम्मीद मत करना कि मैं वन टू वन करूंगा...और आप अपना गुबार मुझ पर उतार कर हल्का महसूस करोगे...चूँकि अगर ये ध्येय इस बहस का होता तो अब तक न जाने क्या होता, हाँ, मैं शुक्रगुजार रहूंगा...आप सबका...आप गालियाँ दोगे तब भी...और अपनी जिम्मेदारी की बाबत कुछ कहोगे तब भी!!
कुछ लोग शर्मशार हैं...बस चुपचाप देख रहे हैं...देखो आगे-आगे होता है क्या? हाँ, शायद अब तक बहस का ध्येय ही समझ नहीं आया हो लोगों को? या फिर जानबूझ के अनजान बन रहे हों? तो बहुतियात की ये भी होशियारी है कि मैं कल मोस्ट टॉप ब्लोग्गर न बन जाऊं?
अंततः मुझे अपने मित्र "करमबीर पंवार" की इक़ बात याद आती है जोकि जब हम इसी बहस को लेके चर्चा कर रहे थे तब उन्होने कहा था " सागर, संवेदनहीन समाज में संवेदना आती ही नहीं है! तो क्या ये अब मान लिया जाए? इस ताने-बाने को यूँ ही छोड़ दिया जाए? "
अपनी राय प्रतिक्रियाएँ भेजते रहिये क्योंकि बहस अभी जारी है मेरे दोस्त...
जो भी लगे बस लिख दीजिये !!


