[करमबीर पंवार]
पिछले साल जब इराक मे इराकी पत्रकार जैदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश पर जूता फैका --- इस घटना के बाद प्रतिक्रिया के लिहाज़ से समूचा विश्व दो पक्षों मे बट गया । ज़ाहिर तौर एक समूह जैदी के पक्ष में और एक उसके विरोध में । हमरे मुल्क में इस तरह की घटना कभी होगी । किसी ने भी नही सोचा था । लेकिन जैदी के विरोध का तरीका हमारे देश में भी हाल ही में दुहराया गया । उधर जैदी तो इधर जरनैल ।
गृह मंत्री पर जूता फैकने की घटना का भी बहुत जल्दी दोहराव हो गया हरियाणा में भी जूता फैका गया । जूते का भय नेताओं को भी सताने लगा है क्यूंकि वे आम चुनाव के कारण जनता के बीच में हैं । लेकिन सवाल उठता है "क्या अब सिर्फ़ जूता चलाना ही अपने आक्रोश और विरोध को दर्ज़ कराने का उचित तरीका है?"
सवाल और भी हैं जैसे जरनैल को एक समुदाय द्वारा समान्नित करना एक समुदाय की भावुकता तो नही ? जरनैल पत्रकार है ज़ाहिर बौद्धिक बिरादरी के हैं, उनके इस कृत्य से क्या समाज की इस बिरादरी की छबि पर भी कोई असर पड़ा है ?
८४ के दंगो के बरक्स भी कुछ सवाल होंगे, दिल्ली के दंगो के चस्मदीद को आख़िर देश की अदालत में आने से गुरेज़ क्यूँ हैं?
और अंत में सबसे महत्वपूर्ण सवाल जूते से विरोध का ये तरीका हमारे लोकतंत्र को किस दिशा में आगे ले जाएगा?
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(लेखक राम राज्य मल्टीवर्सिटी के वाईस चांसलर व जन उद्धार सेवा समित के निदेशक हैं)