* उल्टा तीर लेखक/लेखिका अपने लेख-आलेख ['उल्टा तीर टोपिक ऑफ़ द मंथ'] पर सीधे पोस्ट के रूप में लिख प्रस्तुत करते रहें. **(चाहें तो अपनी फोटो, वेब लिंक, ई-मेल व नाम भी अपनी पोस्ट में लिखें ) ***आपके विचार/लेख-आलेख/आंकड़े/कमेंट्स/ सिर्फ़ 'उल्टा तीर टोपिक ऑफ़ द मंथ' पर ही होने चाहिए. धन्यवाद.
**१ अप्रैल २०११ से एक नए विषय (उल्टा तीर शाही शादी 'शादी पर बहस')के साथ उल्टा तीर पर बहस जारी...जिसमें आपका योगदान अपेक्षित है.*[उल्टा तीर के रचनाकार पूरे महीने भर कृपया सिर्फ और सिर्फ जारी [बहस विषय] पर ही अपनी पोस्ट छापें.]*अगर आप उल्टा तीर से लेखक/लेखिका के रूप में जुड़ना चाहते हैं तो हमें मेल करें या फोन करें* ULTA TEER is one of the well-known Hindi debate blogs that raise the issues of our concerns to bring them on the horizon of truth for the betterment of ourselves and country. आप सभी लोगों को मैं एक मंच पर एकत्रित होने का तहे-दिल से आमंत्रण देता हूँ...आइये हाथ मिलाएँ, लोक हितों की एक नई ताकत बनाएं! *आपका - अमित के सागर | ई-मेल: ultateer@gmail.com

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

पत्नी पीड़ित! चिट्ठाकार क्षमा करें- घरेलू हिंसा- ६


घरेलू हिंसा का मुख्य कारण पुरूषवादी सोच होना है और स्त्री को भोग की विषय वस्तु बनाना है। सामंती युग मेंराजा-महाराजाओं के हरम या रनिवास होते थे जिसमें हजारो-हजारो स्त्रियाँ रखी जाती थी । पुरूषवादी मानसिकता मेंस्त्री को पैर की जूती समझा जाता है इसीलिए मौके बे मौके उनकी पिटाई और बात-बात पर प्रताड़ना होती रहती है . समाज में बातचीत में स्त्री को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती की संज्ञा दी जाती है किंतु व्यव्हार में दोयम दर्जे का व्यव्हारकिया जाता है कुछ देशों की राष्ट्रीय आय का श्रोत्र देह व्यापार ही है ।

मानसिकता बदलने की जरूरत है भारतीय कानूनमें 498 आई पी सी में दंड की व्यवस्था की गई है किंतु सरकार ने पुरुषवादी मानसिकता के तहत एकनया कानून घरेलु हिंसा अधिनियम बनाया है जिसका सीधा-सीधा मतलब है पुरुषों द्वारा की गई घरेलू हिंसा से बचावकरना है इस कानून के प्राविधान पुरुषों को ही संरक्षण देते हैं.

समाज व्यवस्था में स्त्रियों को पुरुषों के ऊपर आर्थिक रूप से निर्भर रहना पड़ता है जिसके कारण घरेलू हिंसा का विरोधभी नही हो पाता है आज के समाज में बहुसंख्यक स्त्रियों की हत्या घरों में कर दी जाती है और अधिकांश मामलों मेंसक्षम कानून व पुरुषवादी मानसिकता के कारण कोई कार्यवाही नही हो पाती है । स्त्रियों को संरक्षण के लिए जितने भीकानून बने हैं वह कहीं न कहीं स्त्रियों को ही प्रताडित करते हैं , जब तक 50% आबादी वाली स्त्री जाति को आर्थिक स्तरपर सुदृण नही किया जाता है तबतक लचर कानूनों से उनका भला नही होने वाला है ।

किसी भी देश का तभी भला हो सकता है जब उस देश की बहुसंख्यक स्त्रियाँ भी आर्थिक रूप से सुदृण होहमारे देश को बहुत सारे प्रान्तों में स्त्रियाँ 18-18 घंटे तक कार्य करती हैं और पुरूष कच्ची या पक्की दारूपिए हुए पड़े रहते हैं उसके बाद भी वो कामचोर पुरूष पुरुषवादी मानसिकता के तहत उन मेहनतकशस्त्रियों की पिटाई करता रहता है । घरेलु हिंसा से तभी निपटा जा सकता है जब सामाजिक रूप से स्त्रियाँमजबूत हों ।

यह पोस्ट उल्टा तीर पर चल रही बहस घरेलू हिंसा के लिए लिखी गई है और इसका शीर्षक यह इसलिए रखा गया है कीमुझे इन्टरनेट पर पत्नी पीड़ित ब्लागरों की यूनियन बनाने की बात की पोस्ट दिखाई दी थी इसलिए पत्नी पीड़ितचिट्ठाकारों से क्षमा मांग ली गई है ।

उल्टा तीर के लिए
[सुमन]

सोमवार, 9 नवंबर 2009

घरेलू हिंसा के कारण- कब तक और क्यों ? Violence Debate- 5



महिलाओं पे घरेलु हिंसा का इतिहास पूरी दुनिया मे पुराना है। भारत में शायद अन्य मुल्कों से कुछ अधिक (पाकिस्तान में उससे भी अधिक हो सकता है)

कई कारण रहे हैं इसके। जैसे-

Ø      सबसे मुख्य कारण: पितृप्रधान व्यवस्था लडकी ब्याह के बाद ससुराल आती है। ( केरल तथा गुजरात में कुछ टपके हैं, जहाँ लड़का ससुराल आता है, माता पिता की देखभाल करनेकी ज़िम्मेदारी लडकी पे होती है.)

ससुराल आते ही उसपे उस घर के रीती रिवाज तुंरत अपनाने के लिए थोपे जाते हैं.। उसका अलग अस्तित्व किसी को मंज़ूर नही होता।

Ø      औरत का आर्थिक दृष्टी से आत्म निर्भर ना होना एक और कारण बन जाता है। उसे शारीरिक मानसिक हिंसा को भयंकर से रूप बर्दाश्त करना पड़ता है।

अक्सर मानसिक हिंसा को हिंसा माना ही नही जाता। लडकी को समर्पण भाव का उपदेश दिया जाता है। बचपन से यही बात सिखाई जाती है कि वो 'पराया धन' है। जहाँ वो पली बढ़ी वही घर उसके लिए पराया बन जाता है। ऐसे हालातों में पति और उसके परिवार को यकीन होता है कि उसे कहीं पनाह नही मिलनेवाली। माता पिता की आर्थिक हालत तथा सामजिक प्रतिष्ठा पे आँच आने की संभावना से ही उसके मायके वाले डर जाते हैं। अन्य भाई बहन के ब्याह में मुश्किल होगी ये डर रहता है। पढ़े-लिखे और आर्थिक रूपसे मज़बूत परिवारों मेभी यही विकृत मानसिकता दिखाई देती है। (एक सवाल तुम करो' इस ब्लॉग पर पढें " अर्थी तो उठी' इस शीर्षक तहत लिखा हुआ आलेख. गर अमित जी इजाज़त दें तो उसे उल्टा तीर पे पोस्ट कर दूँगी)

Ø      सवाल ये उठता है कि औरत की सुरक्षाके लिए क़ानून बने हैं, फिर भी हिंसा पे कोई रोक नही। जवाब यह है कि हिंसा का बयाँ गर पुलिस ठाणे में दर्ज कराया जाता है (लडकी द्वारा), तो उसके लिए ससुराल के दरवाज़े तो तुंरत बंद हो जाते हैं. मायकेवाले भी समझौता करवाने में अधिक विश्वास रखते हैं। साठी औरत गर कमाती ना हो, तो बच्चों के लालन पालन की ज़िम्मेदारी कौन निभाएगा, ये बड़ा सवाल होता है। ज़ाहिरन, ससुराल वाले इस बात का दुरूपयोग करते हैं। लडकी को घर छोड़ना है तो छोडे, बच्चे नही मिलेंगे, ये धमकी दी जाती है। ये इमोशनल blackmail ही तो है! बच्चों की खातिर एक माँ बहुत कुछ बर्दाश्त कर जाती है।

            थाने में जब तक रिपोर्ट नही लिखवाई जाती, आगे की कोई कार्यवाही मुमकिन नही। इसी कारण, पुलिस थानों में कौटुम्बिक सलाह मशविरा भी दिया जाता है।

Ø      दहेज़ की खिलाफत करता हुआ कठोर क़ानून है, लेकिन फिर वही बात! तेरी भी चुप मेरी भी चुप ! गर ब्याह के बाद रिपोर्ट लिखवायें तो मुश्किल, ब्याह के पहले लिखवायें तो  भविष्य में संभावित अन्य रिश्तों को लेके परेशानी..!
           
Ø      दहेज़ को लेके लडकी को कई बार जला दिया जाता है। मृत्यु पूर्व ज़बानी में उसपर दबाव डाला जाता है कि गर वो पति के ख़िलाफ़ कुछ कहेगी तो बच्चे पूरी तरह अनाथ हो जायेंगे. उनके सर से पिता का साया भी उठ जाएगा! वो जलने को अपघात की तौर पे दर्ज कराने के लिए मजबूर की जाती है।

Ø      गर उसे सत्य भी बताना हो तो, अस्पताल में महिला संगठना की कोई सदस्या हाज़िर हो तभी ये तकरार दर्ज की जा सकती है ! रातके समय गर उसे जलाया जाय और महिला संगठना की कार्यकरता/ सदस्य को भनक लग जाय तो वो या तो छुप जाती हैं, या बीमार होने का नाटक कर लेती हैं (ये असली जीवन में देखी घटनाओं का बयाँ दे रही हूँ)

ऐसी हालत में केवल पुलिस के समक्ष दी बयानी न्यायलय में ग्राह्य नही होती। ऐसे कई केस देखे गए हैं, जहाँ, पड़ोसी पोलिस और न्यायाधीश तक को पता होता है कि कसूरवार कौन है, क़ानून सुबूत मानता है। औरत की ज़बानी जो वो मृत्युपूर्व देती है, गवाही के बिना अवैध मानी जाती है !

Ø      मानसिक अत्याचार के जिस्म पे निशाँ तक नही होते ! कौन गवाही देगा...और वही सवाल, औरत जाए तो कहाँ जाय?

इन हालातों को मद्देनज़र रखते हुए, ऐसे ग्रहों/संस्थाओं की बेहद ज़रूरत है जहाँ महिलाओं, उनके बच्चों समेत, आश्रय मिल जाए। वरना गर साल बाद बच्चे को रिमांड में भेज दें तो वहाँ उसकी क्या हालत होगी ये सोचके डर लगता है!
उल्टा तीर के लिए
[शमा]
***
स्त्री प्रधान इस बुराई के विषय में जब तक महिलाओं खुलकर सामने नहीं आयेंगी, बहुत से सच सामने नहीं आयेंगे, बहुत सी बातें, कई तरह की मानसिकताएं कभी भी सामने नहीं आ सकेंगीं.  यह हिंसा सहना और हमेशा सहते रहना आपको आदत में तो डाल सकता है मग़र आप अपनी आने वाली पीढी को भी यही हिंसा परम्परागत जाने-अनजाने सौंप ही देंगे! मैं नहीं कहता कि यह इक़ दिन में कह्तम हो जाने वाली समस्या है, मैं मग़र यह जरूर कहता हूँ कि यह एक बड़ी बुराई है, हिंसा है, महिलाओं के साथ इंसानियत का रवैया नहीं है घरेलू हिंसा, यह महिलाओं की आज़ादी और संभावनाओं पर तमाचा है, जो हर रोज ही महिलाओं को अपने घर में सहना पड़ता है! बुराई करते-करते या सहते-सहते अभ्यस्त होने से अच्छाई के लिए इक़ बार अच्छा होना जादा अच्छा है.
[अमित के सागर]

शनिवार, 7 नवंबर 2009

शिखर पुरुष को श्रद्धांजली



पत्रिकारिता जगत के जाने-माने सशक्त हस्ताक्षर "प्रभाष जोशी" अब हमारे बीच नहीं रहे. बहुत से नए शब्द देने वाले जोशी जी अब शब्दों के रूप में हम सबके पास यादें बनकर ही रहेंगे. मग़र शिखर पुरुष प्रभाष जोशी का चले जाना हिन्दी पत्रिकारिता के लिए बहुत बड़ी क्षत्ति है. एक ऐसा शून्य जिसे कोई नहीं भर सकेगा. हिन्दी पत्रिकारिता के आधारभूत स्तम्भ का एक सशक्त खम्बा टूट गया. जिसकी जगह अब कोई नहीं ले सकेगा.

बीते गुरुवार देर रात मैच देखते-देखते व सचिन तेंदुलकर के आउट होने के बाद उनकी तबियत बिगड़ी व दिल का दौरा पड़ने से अपने पसंदीदा खिलाडी और खेल की रोमांचक खबर लिखने से महरूम जोशी जी हम सबको हमेशा के लिए अलविदा कह गए.

गांधीवादी विचारधारा में रचे-बसे, १५ जुलाई १९३६ को इंदौर के निकट स्तिथ बडवाहा  में जन्मे जोशी जी ने हिन्दी दैनिक अखबार "नई दुनिया" से अपनी पत्रिकारिता का आरम्भ किया. खेल से श्री जोशी को जैसे मुहब्बत रही. खेल में सचिन शिखर खिलाडी रहे हैं तो श्री जोशी खेल पत्रिकारिता के शिखर स्तंभकार. हर विषय पर अपनी सशक्त और जागरूक टिपण्णी देने वाले जोशी जी ने "जनसत्ता" अखबार को सम्पादक के पद पर रहते हुए इक नई ऊंचाई दी. 1995 में संपादक के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद भी वे मुख्य संपादकीय सलाहकार के तौर पर जनसत्तासे जुड़े रहे। आम जन की भाषा में निर्भीक और धारधार लेखन के जरिये की गई उनकी समाजसेवा अमूल्य है. जिसे सदियाँ याद रखेंगीं.

-कुछ मैं कहूं-
अखबार मुझे जादा अच्छे कभी नहीं लगे. पर देश-विदेश में घटने वाली घटनाओं और नई-नई सूचनाओं, जानकारियों से रू-ब-रू होने के लिए मन में एक ख़याल आया कि क्यों न १-१ सप्ताह तक हर अखबार पढा जाए. और फिर यही किया. देश के प्रतिष्ठित अखबारों से लेकर स्थानीय अखबारों तक की ख़ाक छानने के बाद मुझे मिला "जनसत्ता" जिसमें खासतौर से रविवार को होता था श्री जोशी जी का "कागद कारे". बस यही अखबार लगा कि मैं शायद इसे ही तलाशता रहा था. चूँकि यह अखबार गिनती में कम ही होता है और कम ही लोगों को पढ़ते देखा है. इसलिए कभी-कभी इस अखबार को पढने के पीछे ५-५ फोन करने भी पड़ते (जब भी हॉकर 'जनसत्ता' नहीं लाकर देता) या कई-कई स्टॉलों पर घूमना पड़ता. जनसता के प्रति जैसे इक दीवानगी सी है.

श्री जोशी की सप्रथम जब टीवी पर खबर देखी तो यकीन ही नहीं हुआ कि मैं रविवार को जनसत्ता में उनका "कागद कारे" नहीं पढ़ सकूंगा. दिमाग जैसे स्तब्ध हो गया. मन अन्दर से भर गया. दिल में लग रहा है जैसे आंसू बनने तैयार हो गए हैं. और मैं रो पडूंगा. मैंने टीवी बंद की, पर मन नहीं माना, फिर चालू की! बड़ी अजीब सी स्तिथि में मन आ पहुंचा था. जनसत्ता पढ़ते-पढ़ते जैसे श्री जोशी से कोई भावनात्मक रिश्ता सा हो गया था. और अब जोशी जी नहीं रहे! मैंने कभी ऐसी कल्पना नहीं की थी. पर इस सच का सामना करना दुर्लभ सा हुआ.

कल रविवार को जब मैं जनसत्ता देखूंगा तो मैं निश्चित ही आपको बहुत करूंगा, शायद उस कागज़ पर आपके लेखन वाली जगह पर किसी और का कुछ लिखा होगा, मगर मैं आपको ढूंढूंगा, आपके शब्दों और 'अपुन' वाली बेबाकी पढ़ना चाहूँगा...मगर यह सब नहीं होगा...फिर भी आप यादों में मुक़म्मल रहोगे, अपने होने से जादा!

उल्टा तीर परिवार की और से 'श्री प्रभाष जोशी को' हार्दिक श्रंद्धांजलि.
[अमित के सागर]

घरेलू हिंसा के मनोविज्ञान को समझना होगा - घरेलू हिंसा बहस - 4

प्राणीशास्त्रीय सम्बन्धों के आधार पर बने हुए समूहों में परिवार को सबसे छोटी इकाई के रूप में जाना जाता है। इस परिवार रूपी इकाई का निर्माण सम्भवतः सामाजिक सुरक्षा के लिए हुआ होगा। समय के साथ परिवार की अवधारणा में विकास हुआ और परिवार का ढाँचा बदला। संयुक्त परिवार से एकल परिवार, एकल परिवार के बाद नाभिक परिवार और अब नाभिक परिवार के बाद व्यक्तिवादी परिवार का निर्माण होने लगा।

परिवार के विविध स्वरूपों के निर्मित होने के बाद भी उसमें हिंसा का स्वरूप नहीं बदला। घरेलू हिंसा का स्वरूप अलग-अलग परिवारों में अलग-अलग रहा है, होता है। परिवार में होने वाली हिंसा के अध्ययन से पूर्व हमें इस बात को समझना होगा कि घरेलू हिंसा को केवल और केवल महिलाओं से सम्बन्धित हिंसा से न जोड़ा जाये।

आज घरेलू हिंसा के निराकरण में सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसे सिर्फ स्त्री से सम्बन्धित कर देने से समाज में उसके निराकरण को लेकर सोच और समझ का नजरिया बदलने लगता है।

बहस से न भटकते हुए पहले घरेलू हिंसा के स्वरूप को समझना होगा। इस हिंसा के दो स्वरूप आसानी से देखने में आते हैं। एक तो घरेलू हिंसा महिलाओं के प्रति और दूसरा घरेलू हिंसा पुरुषों के प्रति। चूँकि समाजशास्त्रीय आधार पर तथा कानूनी एवं संवैधानिक आधार पर घरेलू हिंसा को महिलाओं से सम्बन्धित करते ही देखा जाता है। इस आधार के स्वीकार्य होने के बाद घरेलू हिंसा का रूप मारपीट से ही लगाया जाता है।

देखा जाये तो कानून की परिभाषा में घरेलू हिंसा केवल मारपीट ही नहीं है। गालीगलौज, धक्कामुक्की, मानसिक प्रताड़ना, यौन उत्पीड़न आदि भी घरेलू हिंसा की परिधि में शामिल माने जाते हैं।

अब सवाल खड़ा होता है कि आज जब महिलाओं में शिक्षा का प्रसार भी हो गया है, रोजगार के क्षेत्र में भी महिलाओं ने अपनी धमक को दिखाया है तब महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा क्यों? घरेलू हिंसा को समझने के लिए उसके मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है।

महिलाओं के साथ होती हिंसा के पीछे कौन है, क्या कारण हैं, इन बातों के आधार पर घरेलू हिंसा को आसानी से समझा जा सकता है। घरेलू हिंसा केवल पुरुषों द्वारा ही होती है, इस बात को आधार बनाने की धारणा को त्यागना होगा। बिना किसी पूर्वाग्रह के हमें इस बात को भी स्वीकारना होगा कि यदि महिलाओं के प्रति हिंसक रवैया पुरुष का है तो स्त्रियाँ भी इसमें पीछे नहीं हैं।

घरेलू हिंसा के मारपीट वाले रूप को घर के पुरुषों द्वारा किया जाना माना जा सकता है। इसके पीछे पुरुष की सम्प्रभु होने की धारणा काम करती है। हमें स्वयं अपने घर के माहौल को समझना होगा और देखना होगा कि हम अपने बच्चों में बचपन से ही लिंग भेद को पैदा करवा देने हैं। घर के कठिन काम लड़के ही करेंगे, लड़कों की बात को लड़कियों को माननी ही चाहिए, लड़कों ने जो कहा है वह सही ही होगा की धारणा को अभिभावक ही अपने बच्चों में भरते हैं। इसके पीछे यदि पिता का हाथ होता है तो माता भी कम दोषी नहीं होती है।

यही बच्चे जब बड़े होकर किसी के पति-पत्नी के रूप में परिवार से जुड़ते हैं तो पुरुष प्रवृत्ति के सभी कुछ सही होने की अवधारणा शक्ति प्रदर्शन का केन्द्र बन जाती है। कुछ भी करने की, जो किया वो सही है की यही मानसिकता पुरुष को स्त्री पर, अपनी पत्नी पर, बहिन पर, बेटी पर हाथ उठाने को उकसाती है। कुछेक उदाहरण तो समाज में ऐसे देखने को मिले हैं जहाँ कलयुगी पुत्र ने माता के ऊपर भी हाथ उठाने में संकोच नहीं किया।

इसके साथ ही परिवार में आधिपत्य की धारणा भी हमें घरेलू हिंसा के दृश्य दिखाती है। कोई इसे सहज रूप में भले ही न स्वीकार करे किन्तु घर-परिवार में एक प्रकार का शासन काम करता है, आधिपत्य करने की भावना यहाँ भी काम करती है। पिता द्वारा अपने बच्चों पर रोबदाब दिखाना, पत्नी को अपने अधिकार में रखने की भावना को इसी रूप में देखा जा सकता है।

यही आधिपत्य की भावना सास में बहू के प्रति भी होती है। अपने शुरुआती दिनों से अपने लड़के को अपनी बात मानते देखना और शादी के बाद उसे पत्नी के साये में बढ़ते देखना किसी-किसी सास को सहज स्वीकार नहीं हो पाता है। यह स्थिति भी घरेलू हिंसा का कारण बनती है। कभी-कभी यह स्थिति गालीगलौज से प्रारम्भ होकर मारपीट तक आ जाती है।

नाभिक परिवारों के निर्माण के प्रति समाज में बढ़ रही आसक्ति, घर के अन्य सदस्यों से दूर रहने की प्रवृत्ति भी परिवार में तनाव पैदा करती है और यही तनाव घरेलू हिंसा की ओर ले जाता है। सास-बहू की आपसी तकरार, बहू-ननद की नोंकझोंक से पैदा हुए तनाव को घर का पुरुष अपनी शक्ति के माध्यम से समाप्त करने का प्रयास करता है। परिणामतः घरेलू हिंसा के विविध रूप सामने दिखाई देते हैं।

घरेलू हिंसा बहुत ही व्यापक विषय है और आज यदि इसका निदान चाहिए है तो हमें परिवार की अवधरणा को समझना होगा, टूटते परिवारों को रोकना होगा। बात बे बात तुलसीदास को दोष देने के स्थान पर हमें अपनी सोच को दोष देना होगा जो एक महिला को महिला नहीं मानती। ये बात स्त्री और पुरुष दोनों पर लागू होती है। ‘‘बेटी को प्यार, बहू को अधिकार’’ के सूत्रवाक्य को अपनाकर हम समाज में महिलाओं के प्रति सकारात्मक सोच को बढ़ा सकते हैं, घरेलू हिंसा को बढ़ने से रोक सकते हैं।
उल्टा तीर के लिए
[डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर]

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

आखिर कब तक सहूँगी- Domestic Violence Debate-3-

उसका मन चीत्कार कर उठा. कब तक आखिर कब तक वह यह सब सहती रहेगी? किसी को उस पर दया न आती न पडोसियों को ससुराल वालो को न पीहर वालों को. रोज पिटना, गाली सुनना उसकी नियति थी. फिर उसने बहुत ही कठोर कदम उठाया, एक दिन अपने बच्चों समेत खुदकुशी कर ली उसने...ऎसी  ही बातें हमें रोजमर्रा में सुनने को मिल जाती है. स्त्रियों का घर में मार खाना वो भी ऎसी महिलाओ को कथित समाज में कही न कही किसी न किसी मुकाम पर है फिर अनपढ व कमजोर तबके की महिलाएं कोई अतिशयोक्ति नही?
    

तुलसी दास ने भी शायद क्या सोच कर यह लिखा होगा,  ढोर, गंवार, शुद्र, पशु, नारी यह सब ताडन के अधिकारी ।। वह इसलिए कि उनकी पत्नी ने उन्हे दुत्कार दिया था. इसे पुरूषों ने अपने ब्रहृमास्त्र बना लिया। उन्होने तो गोया यह मान लिया कि जब तक स्त्रियों को प्रताडित न किया जाये उन पर बाहुबल न दिखाया जाये वह उन्हें आदमी समझेगी ही नही। मै एक उदाहरण देती हूँ - जब हम कालेज में पढते थे. हिंदी की एक प्राध्यापिका जो बहुत सख्त थी. छात्र-छात्राओ के साथ अपने पति द्वारा प्रताडित थी. उस वजह से उसका तनाव उनके काम पर स्पष्ट था. उन्ही के घर में एक छोटी लडकी नौकरानी का काम करती थी, वह अध्यापिका उसको मारती थी. मेरे कहने का मतलब एक आदमी के अपनी पत्नी पर हिंसा करने का खामियाजा और कितने लोग भुगते हैं ? यदि कोई स्त्री या पुरूष कही घर में किसी के साथ भी हिंसक हो, बच्चों के साथ भाई-बहनों के साथ पत्नी या पति के साथ जानवरों के साथ तो कही न कही वह मानसिक रूप से अस्वस्थ है ।
  
कई बार हिंसक होना उनकी परवरिश व माहौल पर भी निर्भर करता है.  इसके साथ ही कई बार कुछ लोगो में कमियां रह जाती है या उसका कुंठाग्रसित होना जो अपनी झुनझुलाहट हिंसक तरीके से रिश्तों में निकालते है। और जन्म होता है घरेलू हिंसा का. जो एक बार शुरू यदि हो गयी तो इसकी परिनति बहुत ही दुखद व भयावह होती है. जो घरेलू हिंसा को सहता है वह भी उतना ही दोषी है जितना एक हिंसा करने वाला.


घरेलू हिसां के एक से एक भयानक उदाहरण है. जिनका हम वर्णन भी नही कर सकते. सबसे अधिक मामले होते है बच्चों के साथ महिलाओं के साथ व बुजुर्ग भी अपवाद नही रहे. सबसे अधिक इसकी शिकार महिलाए है, वह भी विवाह उपरान्त उनके पति द्वारा ससुराल के अन्य सदस्य जैसे ननद, जेठानी, देवरानी, देवर, जेठ एंव सास-ससुर। 


प्रेम विवाह करने वाली महिलाओ इस तरह की दिक्कतों का सामना करना होता है क्योकि प्रेमविवाह करने वाले जब घर गृहस्थी के चक्रव्यूह मे पडते है उनका प्रेम रफूचक्कर हो जाता है. किसी का सहयोग न मिल पाने के कारण पुरूष  को कही न कही यह बोध होने लगता है कि यह स्त्री ही इसका कारण है व कुछ भी सहन न कर पाने की स्थिति में वह अपनी साथी पर ही गुस्सा तथा अपनी हर गलती के लिए अपनी पत्नी पर ही हाथ उठाना शुरू कर देता है. कई बार हीनभावना से ग्रसित हो अपने साथी के प्रति हिसंक हो उठता है। 

अब हमें चाहिए कि अगर घरेलू हिंसा के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़ी जाए तो लड़ी ही जाए...ताकि समाज की यह कुरुती जड़ से मिट सके! बेशक इसमें वक़्त लग सकता है मगर आज घरेलू हिंसा पर बात करके कल से खामोश होना घरेलू हिंसा को बल के सिवा कुछ नहीं देगा और यूं ही इंसानों की बेज़ारियाँ होती रहेंगी. औरतों को इंसान समझने की मानवीयता अपने अन्दर पुरुष वर्ग को जगानी ही होगी वहीं औरतों को भी (कई मामलों में) हिंसक होने से बचने का संतुलन बनाना होगा. आइये हम सिर्फ बात न करें इक पूरी मुहिम चलायें, इक पूरी लड़ाई लड़ाएं और घरेलू हिंसा को जड़ से मिटायें.
जारी है...
उल्टा तीर के लिए
[सुनीता शर्मा]

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

स्त्री-पुरुष और घरेलू हिंसा

-Domestic Violence Debate-2- 

हिंसा की कोई शक्ल नहीं होती, लेकिन हिंसा करने वाले की सूरत को कागज पर जरूर उकेरा जा सकता है. आदिकाल में जब मनुष्य भोजन की तलाश में जंगलों की खाक छाना करता था हिंसा तब भी मौजूद थी. उन निरीह जानवरों के लिए जो किसी का पेट भरने की खातिर मारे जाते थे मनुष्य हिंसा फैलाने वाले दानव की तरह था. वो दानव जो करुण पुकार और दया के भाव से कोसों दूर था. इतना लंबा समय गुजरने के बाद भी करुणा और दया जैसे शब्द मनुष्य के शब्दकोष में ढूंढे से आज भी नहीं मिलते, हिंसा का अस्तित्व अब भी कायम है. फर्क केवल इतना है कि उसका स्वरूप वृह्द हो चला है. मनुष्य जो शुरू से ही क्रूर था आज क्रूरतम बन गया है. पहले उसकी क्रूरता केवल स्वयं और अपनों को बचाने तक ही सीमित थी मगर आज वह उन्हीं अपनों के साथ क्रूरता से पेश आता है. रिश्तेनाते उसके लिए कोई मायने नहीं रखते.

मनुष्य का प्रत्येक रूप फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष हिंसा बोध से ग्रस्त है. पुरुष को इस मामले में थोड़ा आगे रखा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा. हिंसा के मायने उसके लिए बिल्कुल अलग हैं.घर की चारदीवारी के भीतर स्त्री पर उठने वाले हाथ को वह हिंसा नहीं मानता, उसके लिए तो यह मर्दानगी का सुबूत है. पुरुष की इस मर्दानगी के किस्से आए दिन खबरों के माध्यम से सुनने में आते रहते हैं. नेशनल क्राइम ब्यूरों के मुताबिक महिलाओं के खिलाफ अपराध के सालाना 1.5 लाख मामले दर्ज किए जाते हैं, जिनमें से लगभग 50 हजार घरेलू हिंसा से जुड़े होते हैं. मौटे तौर पर कहा जाए तो लगभग पांच मिलियन महिलाएं घर के भीतर हिंसा का शिकार होती हैं, लेकिन महज 0.1 फीसदी ही इसके खिलाफ आवाज बुलंद करने का साहस जुटा पाती हैं. दरअसल हमारे देश में शुरूआत से लड़कियों को यह बात सिखाई जाती है कि उन्हें हरहाल में अपने पति के साथ रहना है. ऐसे में रिश्तों में कड़वाहट की दशा में भी वो ससुराल की दहलीज से बाहर पैर निकलाने का फैसला लेने से कतराती हैं. क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका यह फैसला परिवार के लिए बदनामी का कारण बन सकता है.

एनसीआरबी की 2007-08 की रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि तमाम दलीलों और प्रयासों के बावजूद महिलाओं के प्रति क्रूरता में कोई कमी नहीं आई है. रिपोर्ट में आधी आबादी पर अत्याचार के मामले में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के बाद आंध्र प्रदेश को दूसरे स्थान पर रहा गया, राय में घरेलू हिंसा के 11,335, दहेज हत्या के 613, बलात्कार के 1079, और अपहरण के 1564 मामले दर्ज किए गये. ऐसे ही उत्तर प्रदेश में दहेज हत्या के 2066, बलात्कार के 1532 और अपहरण के 3819 केस सामने आए. ऐसा तब है जब राय में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक महिला विराजमान है. दिल्ली से सटे हरियाणा में तो स्थिति और भी यादा खराब है, भले ही दूसरे रायों की तुलना में यहां कम मामले दर्ज किए गये हों मगर महिलाओं से क्रूरता की खौफनाक तस्वीर यहां आय दिन देखने को मिलती रहती है. बिहार की बात करें तो नीतिश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी महिलाओं की दशा में कोई सुधार देखने को नहीं मिला. 2007-08 के दौरान यहां करीब 59 प्रतिशत विवाहिताएं घरेलू हिंसा की भेंट चढ़ी, जबकि दहेज हत्या के 1172 और बलात्कार के 1555 मामले दर्ज किए गये. इसी तरह मध्यप्रदेश, कर्नाटका और केरल आदि रायों में भी हिंसा का ग्राफ बाकी रायों की तरह ही रहा.

सबसे यादा अफसोस की बात तो ये है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले केवल निचले तबके तक ही सीमित नहीं हैं. पढ़े-लिखे और संपन्न माने जाने वाले परिवारों में भी ऐसा धड़ल्ले से होता है. 26 अक्टूबर 2006 को देश में घरेलू हिंसा रोकने के लिए नया कानून लागू किया गया, जिसके तहत पत्नी या फिर बिना विवाह किसी पुरुष के साथ रहने वाली महिला मारपीट, यौन शोषण, आर्थिक शोषण या अपमानजनक भाषा के इस्तेमाल की परिस्थिति में अपने साथी के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है. कानून का उल्लंघन होने की स्थिति में जेल के साथ -साथ जुर्माने का भी प्रावधान रखा गया. कानून लागू होने के महज दो दिन बाद यानी 28 अक्टूबर 2006 को इसके अंतर्गत तमिलनाडु से पहली गिरफ्तारी हुई. 47 वर्षीय जोसेफ को अपनी पत्नी से मारपीट के आरोप में हिरासत में लिया गया, इस पहली गिरफ्तारी के बाद एक आस बंधी की शायद महिलाओं के प्रति बरसों से चली आ रही सोच में परिवर्तन देखने को मिलेगा, हालांकि कुछ परिवर्तन जरूर सामने आया लेकिन उसका प्रतिशत हिंसा के मुकाबले काफी कम रहा. कुल मिलाकर कहा जाए तो बदलते जमाने के साथ साथ पुरुष ने अपने आप में अनगिनत बदलाव किए मगर स्त्री को लेकर चली आ रही घिसी-पिटी मानसिकता बदलने की कोशिश नहीं की. पुरुष का यह बहुत ही क्रूरतम चेहरा है मगर इसका मतलब ये भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि दर्शाए गये प्रत्येक चेहरे की क्रूरता में उतनी ही सच्चाई हो. महिलाएं बुरे दौर से गुजर रही हैं इसमें कोई दोराय नहीं लेकिन कहीं-कहीं पुरुषों की स्थिति उनसे यादा दयनीय है. घरेलू हिंसा का शिकार उन्हें भी होना पड़ रहा है, इसका कारण है महिलाओं की सुरक्षा को बनाए गये कठोर कानून.

यहां एक शोध का जिक्र करना बेहद जरूरी है, हालांकि उसका मौजूदा विषय से खास ताल्लुक नहीं लेकिन मासूम चेहरे के पीछे छिपी क्रूरता को कुछ हद तक उजागर करने के लिए आवश्यक है. कुछ वक्त पूर्व हुए इसशोध में यह बात सामने आई कि देश की राजधानी दिल्ली में पिछले पांच सालों में दर्ज किए गए बलात्कार के मामलों तकरीबन 20 फीसदी के आसपास फर्जी थे. अधिकतर मामलों को बदला लेने के उद्देश्य के चलते बलात्कार से जोड़ा गया. शोध में उन तमाम मामलों का भी उल्लेख किया गया जिनमें रेप की आड़ में हित साधने की कोशिश की गई. मसलन पूर्वी दिल्ली में रहने वाली एक 16 साल की लड़की ने अपने पिता पर बलात्कार का आरोप लगाया लेकिन जब सच सामने आया तो पता चला कि यह करतूत किसी और की थी और भाई के कहने पर उसने ऐसा किया. ऐसे ही द्वारका की रहने वाली 13 साल की लड़की ने जिन लड़कों पर बलात्कार का आरोप लगाया पुलिस जांच में वो फर्जी पाया गया. बाद में मालूम हुआ कि लड़की के परिवार के कुछ लोगों ने ही उसके साथ रेप किया था लेकिन पारिवारिक दबाव में आकर उसे झूठ बोलना पडा. ऐसे ही तकरीबन 10 साल तक खिंचने वाले एक मामले में अदालत ने अपने दामाद पर बलात्कार का आरोप लगाने वाली महिला का सच उजागर किया.विकासपुरी में रहने वाली इस महिला ने दामाद पर डरा-धमकार लंबे समय से यौन शोषण करने कर आरोप लगाया लेकिन कोर्ट में वह अपने झूठ को यादा देर तक कायम नहीं रख पाई. इसी तरह एक शादीशुदा महिला ने अपने अपहरण और बलात्कार का झूठा ड्रामा रचा, उसने पुलिस को बताया कि अज्ञात लोगों ने उसे अगवा कर उसके साथ मुंह काला किया. मगर जांच में मालूम हुआ कि महिला ने अपने प्रेमी के साथ मर्जी से संबंध बनाया और खुद को बचाने के लिए यह कहानी गढ़ी. इस सब के बाद इतना तो कहा ही जा सकता है कि क्रूरता के मामलों में जितना सच्चाई नजर आती है दरअसल उतनी होती नहीं. महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं, ये सही है. लेकिन ये भी सही है कि पुरुष भी इससे अछूते नहीं. क्योंकि दोनों ही हिंसाबोध से ग्रस्त हैं.
उल्टा तीर के लिए
[नीरज नैयर]
"एक चिट्ठी देश के नाम" (हास्य-वयंग्य) ***बहस के पूरक प्रश्न: समाधान मिलके खोजे **विश्व हिन्दी दिवस पर बहस व दिनकर पत्रिका १५ अगस्त 8th march अखबार आओ आतंकवाद से लड़ें आओ समाधान खोजें आतंकवाद आतंकवाद को मिटायें.. आपका मत आम चुनाव. मुद्दे इक़ चिट्ठी देश के नाम इन्साफ इस बार बहस नही उल्टा तीर उल्टा तीर की वापसी एक चिट्ठी देश के नाम एक विचार.... कविता कानून घरेलू हिंसा घरेलू हिंसा के कारण चुनाव चुनावी रणनीती ज़ख्म ताजा रखो मौत के मंजरों के जनसत्ता जागरूरकता जिन्दगी या मौत? तकनीकी तबाही दशहरा धर्म संगठनों का ज़हर नेता पत्नी पीड़ित पत्रिकारिता पुरुष प्रासंगिकता प्रियंका की चिट्ठी फ्रेंडस विद बेनेफिट्स बहस बुजुर्गों की दिशा व दशा ब्लोगर्स मसले और कानून मानसिकता मुंबई का दर्दनाक आतंकी हमला युवा राम रावण रिश्ता व्यापार शादी शादी से पहले श्रंद्धांजलि श्री प्रभाष जोशी संस्कृति समलैंगिक साक्षरता सुमन लोकसंघर्ष सोनी हसोणी की चिट्ठी amit k sagar arrange marriage baby tube before marriage bharti Binny Binny Sharma boy chhindwada dance artist dating debate debate on marriage DGP dharm ya jaati Domestic Violence Debate-2- dongre ke 7 fere festival Friends With Benefits friendship FWB ghazal girls http://poetryofamitksagar.blogspot.com/ my poems indian marriage law life or death love marriage mahila aarakshan man marriage marriage in india my birth day new blog poetry of amit k sagar police reality reality of dance shows reasons of domestic violence returning of ULTATEER rocky's fashion studio ruchika girhotra case rules sex SHADI PAR BAHAS shadi par sawal shobha dey society spouce stories sunita sharma tenis thoughts tips truth behind the screen ulta teer ultateer village why should I marry? main shadi kyon karun women

[बहस जारी है...]

१. नारीवाद २. समलैंगिकता ३. क़ानून (LAW) ४. आज़ादी बड़ी बहस है? (FREEDOM) ५. हिन्दी भाषा (HINDI) ६. धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद . बहस नहीं विचार कीजिये "आतंकवाद मिटाएँ " . आम चुनाव और राजनीति (ELECTION & POLITICS) ९. एक चिट्ठी देश के नाम १०. फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स (FRIENDS WITH BENEFITS) ११. घरेलू हिंसा (DOMESTIC VIOLENCE) १२. ...क्या जरूरी है शादी से पहले? १३. उल्टा तीर शाही शादी (शादी पर बहस- Debate on Marriage)