*उल्टा तीर लेखक/लेखिका अपने लेख-आलेख ['उल्टा तीर टोपिक ऑफ़ द मंथ'] पर सीधे पोस्ट के रूप में लिख प्रस्तुत करते रहें. **(चाहें तो अपनी फोटो, वेब लिंक, ई-मेल व नाम भी अपनी पोस्ट में लिखें )***आपके विचार/लेख-आलेख/आंकड़े/कमेंट्स/ सिर्फ़ 'उल्टा तीर टोपिक ऑफ़ द मंथ' पर ही होने चाहिए. धन्यवाद.
-फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स विषय बहस पर मेल द्वारा भेजी गई [डॉ. श्याम गुप्ता] की टिपण्णी-
शायद 'फ्रेंड्स विद बेनेफिट' का अर्थ सब लोग सिर्फ शारीरिक सम्बन्ध के लिए रिश्ता, फ्री सेक्स स लगा रहे हैं ? वस्तुतः फ्रेंड्स विद बेनेफिट का यह अर्थ नहीं है. इसी सीरीज़ के एक लेख में लेखक ने कितना सही कहा है कि हम नकलची हें, हम वास्तव में अभी तक नक़ल की ही बात कर रहे हैं, विषय की गहराई तक पहुँच बिना|
फ्रेंड्स विद बेनेफिट भारतीय समाज में न जाने कब से चला आरहा है. ममेरी, फुफेरी बहनें, चाचियाँ, मामियां (सामान्य आदरणीय रिश्ते), भाभियाँ, बहनों के सखियाँ, भाइयों के मित्र, सालियाँ, सलहजें (हंसी मज़ाक वाले रिश्ते)गली मोहल्ले व गाँव की बहनें, बेटियों के रिश्ते के आदि रिश्ते. वास्तव में यही 'फ्रेंड्स विद बेनेफिट' होते थे जो एक दूसरे व्यक्ति, परिवार, समाज, गाँव के आपसी सामंजस्य व उभय पक्षीय सहयोग पर आधारित था. हाँ सेक्स के लिए उसमें कोइ स्थान नहीं था | हाँ कभी-कभी गुमराही के कारण हंसी मज़ाक वाले रिश्तों में सेक्स का आविर्भाव भी होजाता था. मानवीयता की कमजोरी वश; जानबूझकर, प्री -प्लांड नहीं विश्रंखलित व असंयमित व्यक्तित्व, समाज व मानसिकता की वज़ह नहीं |
यही 'फ्रेंड्स विद बेनेफिट' का अर्थ होना चाहिए |
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"फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स" पर चली बहस/चर्चा का निष्कर्ष जल्द ही "उल्टा तीर निष्कर्ष" पर जरूर पढें व दें अपना निष्कर्ष भी.
उल्टा तीर वह मंच है जहां जलती हुए जुबानों को भी सलाम किया जाएगा! बशर्ते बस पहुचंह सकें हम इक बेहतर निषकर्ष पर!
हम इन्सान है. गुस्सा, हंसी, रोना, उदास होना, खुश होना, प्रेम करना ये सब किसी भी इन्सान की सहज प्रवृत्तियां हो सकती है. किसी भी व्यक्ति के व्यक्तितत्व का निर्धारण उसका परिवेश, परवरिश, शिक्षा, संगत आदि बहुत सी बातें है जो उसके जीवन पर असर डालती है. तब एक जीवन का निर्माण होता है। मै यहां यह सब क्यों कह रही हुं? क्योकि विषय तो बहस का यह है समाज में प्रचलित एक रिश्ता जिसे "फ्रेन्डस विद बेनेफिटस" का नाम दिया है. हमारे समाज में ये रिश्ता व्याप्त हो चुका है जिसके बारे काफी कुछ बतलाया जा चुका है. पूरी बहस में तमाम ऎसे उदाहरण भी दिये गये जिसमें बहुत सी छिपी बातों का खुलासा भी हो चुका है। क्या इन रिश्तों के पीछे कारण आज के जीवन की देन कहा जाये या फिर टुटता परिवार, खत्म होता समाजिक नियन्त्रण, सामाजिक खुलापन या जीने की आजादी व खुलापन कारण अनलिमिटेड है। बस अहम है तो यह कि प्यार जो कभी साथ जीने मरने सारी जिन्दगी निभाने का दायित्व या बोध होना कि चाहे कुछ भी कभी रिश्ते टूटे न लेकिन आज छोटी बातों पर लोग रिश्ते खत्म कर देते है.
बदलाव हर रिश्ते में आया है। फिर इन रिश्तों का बढना या अस्तित्व में आना कोई नयी बात नही रह गयी। सवाल यह उठता है कि स्त्री पुरूषों के लिए यौन-सम्बन्ध रखने के लिए समाजिक तौर पर विवाह संस्था का चलन व स्वीकार्य होना है यही समाज में समाजिक तौर पर यौन सम्बन्धों पर नियन्त्रण व अराजकता की स्थित से बचाव का उपाय भी था । आज जब समाज में अस्वीकृत तौर पर या स्वीकृत तौर पर फ्रेन्डस विद बेनेफिटस जैसे रिश्तों का समाजिक सम्बधों को सरल बनायेगा या जटिल इससे लोगो को खुशिया मिलेगी या गम ये तो समय के साथ चलता रहेगा लेकिन कुछ ऎसे उदाहरण सामने आये है जिससे ये पता चला है कि इन रिश्तो में जो लोग रहे उन्हे आखिर में मानसिक अवसाद या डिपरेशन के सिवा कुछ हासिल न हुआ जिस खुशी या क्षणिक सुख के बदले बाद में दुख ही मिला ये मनुष्य की चारित्रिक विशेषता भी हो सकती है कि वह अपनी बात पर कितना दृढ रहता है. क्योकि एक के बाद दसरे के साथ यौन सम्बन्ध वाले रिश्ते बनाना सिर्फ अपने इनजायमेन्ट के लिए भारतीय संस्कुति के विरूद्व है. पर दुसरी सभ्यताओं की देखा देखी ग्लोबलाइजेशन के प्रभाव की वजह से भी भारतीय समाज की वर्जनाये टूट रही हैं और हर चीज में पश्चिमी सभ्यता के अनुकरण ने भले ही हमारे लाइफ-स्टाइल को प्रभावित किया हो पर शायद कही कोने में दिल है हिन्दुस्तानी वाली बात जरूर छिपी हई होती है।
जीने के लिए साथ व सानिध्य की आवश्यकता मनुष्य को उम्र के हर पडाव पर पडती है सुविधाओं की उपलबधियों आज समाज की सेक्स वर्जनाओ कही तोडा भी है. पर अमित जी ने पिछली पोस्टों में इस रिश्तें को मानने वालों के कुछ सुक्षाव भी सामने रखे क्योंकि जिस तरह इसको मांग व आपूर्ति का रिश्ता भी कहा गया है उसके लिए भावुकता का यहां कोई स्थान नही है भावुक व भावनाये रखने वाले लोगो को इन बातो से परे ही रहने की सलाह दी गयी । यहां फरेब है... यहां इस रिश्ते को निभाने के पीछे कोई प्रतिबद्वता तो है नही. जब जिसका मन चाहे वो रिलेशन रखे या न रखे कोई कारण नही जब चाहे तब दुसरे के साथ दुसरा रिलेशन बना सकता है इसलिए यहां जिन्दगी तलाशने वाले दूर ही रहे....!
मित्रों "उल्टा तीर" पर कई दिनों से "फ्रेंडस विद बेनिफिट" चर्चा चल रही है. नए ज़माने की चर्चाहै, मेरे लिए एकदम से नया विषय, लेकिन सोचता हूँ कि मुझे भी इस विषय परकुछ कहना चाहिए. मेरेअपने विचार इसके पक्ष या विपक्ष में हैं, इसकाआंकलन आप पाठकों को ही करना है.
इसमें तीनशब्द हैं, पहला "फ्रेंडस" जिसेहम इसके मायने दोस्त (आज कल इसका दायरा बढ़ गया है-समलिंगी-विषमलिंगी कोईभी हो सकता है) के रूप में जानते हैं, दूसरा शब्द है "विद" यानी 'साथ' में. तीसरा शब्द है "बेनिफिट" यानी लाभ. दोस्तों के बीच एक दूसरे को लाभपहुचने की स्थिति को ये शब्द बयान करता है. इस शब्द को आपसी यौन व्यवहारके साथ कैसे जोड़ा गया मैं इस पर नहीं जाता. अपनी शारीरिक यौन आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिएकिया गया एक अनुबंध है. जिसमे कोई भावना, प्रेम का आधारनहीं है. बिना प्रेम और भावना से जुड़े किया गया सेक्स वैसे है जैसे आज कल"लव डाल" के साथ, ये शहरों में चल रहा हैं, आज समाज में सारी वर्जनाएं टूटरही हैं.
स्त्रियाँ भी अपनी यौन सुख लेकर काफी संवेदनशील जागरूक हो गयीहै. अब वो समय लद गया कि पति महोदय तीन चार साल से बाहर कमाने गए हैं औरपत्नी घर पर रह कर मनी आडर के सहारे बच्चों की परवरिश करते हुए जीवन काटलेती थी. गांव से ही शहर बसे हैं. पहले और आज भी होता है यदि किसी का पतिपत्नी दोनों में से कोई भी मृत्यु को प्राप्त होता है या पागल -गुम होजाता है तो दोनों में से कोई भी नये साथी का वरण कर लेता है. जिसे "चूड़ीपहनना" कहते हैं. फिर इस जोड़े को सामाजिक मान्यता मिल जाती है.
क्या इसतरह के "बेनिफिट' वाले रिश्ते को सामाजिक मान्यता है? क्या इस तरह बिनाशादी के चोरी-छुपे रह रहे लोग अपने परिजनों को बता सकते हैं कि हम आपस मेंपति -पत्नी की तरह रह रहे हैं? अगर समाज के समक्ष सम्बन्ध जाहिर हो जातेहैं तो इसे सकारात्मक रूप ले लिया जा सकता है? आखिर जो कुछ भी हो रहा हैवो समाज से छुपकर ही हो रहा है. कालांतर में इसके घातक परिणाम ही निकलनेकी सम्भावना है. ये सिर्फ अभी जो वर्तमान में चोरी-छुपे चल रहा है इसी तरहचलता रहेगा. ये सदियों से चलता आया है. इस तरह पति-पत्नी के रूप में सामानलाभ यानी "संतान विषय में" प्राप्त करने के लिए वैदिक काल में 'नियोग"प्रथा का उल्लेख स्वामी दयानंद ने अपने ग्रन्थ"सत्यार्थ प्रकाश"मेंउल्लेख किया है. उन्होंने बताया है किबिना विवाह किये भी स्त्री पुरुषयदि ब्रम्हचर्य का पालन ना कर सकें तो उन्हें नियोग करना चाहिए. ये प्रथाविवाह से अलग है. ये कार्य भी विवाह की तरह सामाजिक मान्यता से ही होताहै. मेरी दृष्टि में "फ्रेंड्स विद बेनिफिट" एक तरह की जिम्मेदारी रहितयौन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गढ़ी गयीएक नयी स्वछंदता है. अगरगंभीरता से लें तो इसके परिणाम सकारात्मक नहीं हो सकते. लेकिन फिर भी येचलता ही रहेगा. कोई काहू में मगन, कोई काहू में मगन.
फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स बहस अपने अंतिम पढाव पर है. कृपया अपनी अमूल्य राय जरूर दीजिये ताकि हमसब के लिए विषय का कोई निष्कर्ष निकल सके.
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अगर आप पास हैं अपने निजी अनुभव, या है आपका कोई मित्र या जानकर 'फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स' के रिश्ते में, तो हमें लिख भेजिए.
रोहितवर्मा, बी.पी.ओ एक्जीक्यूटिव. उम्र २९ साल. निवास स्थान- दिल्ली शहर. यहलेखा किसी थाने से लिया गया या अदालत में विचाराधीन केस का नहीं है. रोहितवर्मा, जोकि पिछले ४ वर्षों से दिल्ली शहर में रह रहे हैं...इनका सीधाताल्लुक "फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स" से है. इनके लिए इस रिश्ते की शुरुआतखुद को चौंकानेवाली थी! यह इकदम बहुत नया था. शायद मेरी कल्पना से भीजादा नया.चूँकि रोहित वर्मा स्थाई रूप से छोटे शहर से ताल्लुक रखते हैं. मग़र बकौलरोहित- इस तरह के रिश्ते में पड़ना यानी खुद को पूरी आज़ादी और और शारीरिकसुख का पूरा आनंद वो भी बिना किसी बंधन के, यह रोहित को इतना भागया कि एकके बाद एक कई अन्य रिश्तों में जुड़ते चले गये!बौकौल रोहित-मैं जबअकेला दिल्ली शहर आया तो आजादी मेरे साथ-साथ चलती आई. इस आजादी कोमैंकुछ इस तरह देखता हूँ जैसे यहाँ पर अकेले रहना और सब कुछ अपनी मर्जी केमुताबिक करना. यहाँ पर घर कोई का नहीं. इसलिए यहाँ मुझे किसी कोई कोई जवाबनहीं देना होता है, मेरे व्यक्तिगत जीवन में यह आज़ादी बहुत महत्त्व रखतीहै.
बी.पी.ओ सेक्टर में नौकरी पाने के बाद कुछ नए बने मित्रों के जरिये मुझे "फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स" के बारे में पता चला. मेरी ज़रूरत और आजादी केहिसाब से मुझे यह रिश्ता इतना भा गया कि मैं अपने लिए इस तरह के मित्र कीखोज करने लगा. मेरी पहली मित्र सहकर्मी थी. जिसके साथ मेरा पहली हीमुलाक़ात से अच्छा शारीरिक आकर्षण था. सही कार्यकर्ता होने के कारण मेरी इसमित्र से बातचीत बढ़ी और बहुत जल्द हमारी बात-चीत "फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स"में बदल गई. और इस एक रिश्ते के बाद अगले ३ वर्षों में (आज तक) मेरी कईअन्य ऐसी ही मित्र बनीं.
दिल्लीकी २६साल की प्रिया एक एम एन सी में कार्यरत है. उसके अनुसार- कार्य कातनाव और अकेलेपन की चुभन ने उसे ऐसे रिश्तों में पहुंचाया. अकेलेपन सेबचने के लिए मैंने इस तरह के रिश्ते में हाथ बढाया. चूँकि किसी भी वचनबद्धरिश्ते के लिए मेरे पास न समय था न मानसिक तैयारी. करियर मेरे लिएमहत्वपूर्ण था. यह रिश्ता मुझे इन्हीं बातों के मद्देनजर बहुत जंचा. औरमैं इक़ के बाद इक़ नए रिश्ते में पड़तीचली गई. इस तरह के रिश्ते में कभीका एक दौर ऐसा भी रहा कि इक़ ही समय में ५-५ रिश्तों में रही. लम्बे घंटोंके अकेलेपन और थकान के बाद एक बहुत अच्छा शारीरिक सुख और समय ने मुझे बहुतसुकून दिया और कहीं से भी यह मेरे करियर या जिंदगी के किसी और रास्ते मेंआड़े नहीं आया. इस रिश्ते में मेरे बने रहने की यह बात भी महत्वपूर्ण रही.
मग़र इस रिश्ते में अपने इक़ मित्र के लिए (जिसके साथ मैं फ्र्न्ड्स विदबेनेफिट्स" रिश्ते में थी) जब भावनाएं महसूस कीं तो यह मेरे लिए सोच काविषय बना. मैंने अपने मित्र के सामने जब अपनी भावनाएं प्रकट की तो उसनेबहुत रूखा सा जवाब दिया कि " हम इस तरह के रिश्ते में कतई नहीं हैं जहांप्यार और इसकी वचनबद्धता आती हो) और यह कहकर वो फिर मुझसे आजतक कभी नहींमिला. मैं इस रिश्ते की मर्यादा तोड़ रही थी शायद. यह मेरे लिए दुखी करनेजैसा था. जिसके चलते मैं आगामी ६-७ महीनों तक मानसिक रूप से डिप्रेसन (विषाद) में रही.
मुंबई शहर में रहने वाले २७ साल केराजीव शुरू से ही रंगीन मिजाज़ प्रवृति के हैं. इस रिश्ते में आने से पहलेजो भी लकड़ी इनकी मित्र हुआ करती थी, यह उस हर लडकी से शारीरिक रिश्ता कायमकरने की इच्छारखते थे. जिसमें कई बार राजीव को कामयाबी मिली. कहते हैं किहम जिस चीज़ को तलाशना चाहते हैं दरअसल कभी कभी वाह चीज़ हमें ही तलाश रहीहोती है. कुछ ऐसे ही जब राजीव को "फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स" के बारे मेंपता चला तो जैसे मन की मुराद पूरी हुई. और तब से अब तक सेक्स सुख के इसफ्रेंड्स विद बेनेफिट्स में बहुत से रिश्ते बनाए हैं. जिनमें न तो कुछजुड़ने जैसा होता है और न टूटने जैसा होता है. बस आने वाला आता है और जानेवाला जाता है.
इन तीनों कहानियों से और इस तरह के रिश्तोंमें अन्य लोगों से की गई बातचीत के तौर पर यह तो साफ़ हो गया है कि यहरिश्ता "फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स" एक ऐसा अनाम रिश्ता है जिसके अनुसरण करताखुद भी इसे कोई नाम नहीं देते. साफ़ है कि यह रिश्ता सिर्फ और सिर्फ सेक्स (शारीरिक सुख) प्रधान है. जिसमें आप अपने मित्र से शारीरिक शुख तो प्राप्तकरते हैं मग़र भावनात्मक तौर पर न आप अपने मित्र के लिए कोई मायने रखतेहैं और न आपके मित्र आपके लिए.रिश्तों की बढ़त या गहराई में जिसकी कोई पकड़नहीं. कोई जिम्मेदारी नहीं. यह सामाजिक या निजी तौर पर पूरी तरह से खुद कोआजाद रखते हुए व इसी रिश्ते के सन्दर्भमें किसी भी तरह की वर्तमान याभविष्य की जिम्मेदारी से बचते हुए शारीरिक सुख पाते रहना का जरिया है.परन्तु इसकी नकारात्मकता यह है कि हो सकता है कि आप अपने इसी तरह के मित्रके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने लगें. जोकि आपके लिए मानसिक और भावनात्मकरूप से हानिकारक है. जैसा कि प्रिया के साथ हुआ. और यकीनन यह रिश्ता आनेवाले रिश्ते में भी प्रभाव डाल सकता है. जैसा कि राजीव बताते हैं- मैंअक्सर सोचता हूँ कि जब मेरी शादी होगी तब क्या मैं अपने विवाहित रिश्तेमें ढल पाऊंगा या नहीं.क्या मैं एक अच्छा पति साबित हो सकूंगा!मैं यह भीअक्सर सोचता हूँ कि जिन लड़कियों के रिश्ते मुझसे हैं- उनका क्याहोगा...क्या वो अपने आने वाले विवाहित रिश्ते में सामंजस्य बिठा पाएंगीं.
फ्रेंड्स विद बेनेफ्ट्स रिश्ते की यह एक साफ़ तस्वीर है. साफ़-साफ़ शब्दोंमें यह रिश्ता सिर्फ शारीरिक सुख (सेक्स सम्बन्ध) कोई पाने का एक ऐसाजरिया है, जिसमें न कोई बंधन है और न भावनाओं की कोई जगह. आप सिर्फ त्वरितक्षण में जीते हैं. न अतीत में न भविष्य में. फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स परउल्टा तीर ने कुछ पहलुओं पर बड़ी गंभीरता से प्रकाश डाला है, चूँकि यहरिश्ता गतिमान है पर स्वीकारोक्ति व नकारने की अवस्था में नहीं है.फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स समाज का ही एक हिस्सा है और आप सामाजिक प्राणीहोने के नाते इसके बारे में क्या सोचते हैं? इस रिश्ते को लेकर आपकी क्याभावनाएं हैं? प्रकट करें.
तीनों कहानियां सच्ची हैं मग़र पहचान छुपाने के लिए चरित्रों के नाम बदल दिए गये हैं.
उल्टा तीर पर आपके विचारों को आपकी बुलंद आवाज़ के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश हमेशा से ही की जाती रहीहै...कृपया इसे बल दें.आपकीप्रतिक्रयाहीनहींआपकीसवेदनाकाबहुतछोटासाटुकड़ाभी समाज के योगदानमेंजाकरआपकोगर्वमहसूसकरासकताहै!
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दिवाली के इस उत्सव पर [आचार्य संजीव सलिल] की रचना ~!~ दिवाली मना रे~!~आप सभी के लिए भेंट स्वरुप सादर प्रस्तुत है-
नव गीत हिल-मिल दीपावली मना रे!...
***
चक्र समय का
सतत चल रहा.
स्वप्न नयन में
नित्य पल रहा.
सूरज-चंदा
उगा-ढल रहा.
तम प्रकाश के
तले पल रहा,
किन्तु निराश
न होना किंचित.
नित नव
आशा-दीप जला रे!
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*
तन दीपक
मन बाती प्यारे!
प्यास तेल को
मत छलका रे!
श्वासा की
चिंगारी लेकर.
आशा-जीवन-
ज्योति जला रे!
मत उजास का
क्रय-विक्रय कर.
'सलिल' मुक्त हो
नेह लुटा रे!
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
~!~
किस आसानी से कह दिया जाता है ‘दोस्त’ और उतनी ही आसानी से कह दिया जाता है कि अब दोस्ती समाप्त। ये वर्तमान का चलन है। इसे हम यदि संस्कृति, सभ्यता के चलन के रूप में न देखकर एक सामाजिक अवधारणा के रूप में स्वीकारें तो शायद ऐसे रिश्तों का आकलन करना आसान हो जायेगा। ‘फ्रेंड्स विद वेनिफिट्स’ भले ही इन अंग्रेजी शब्दों के अर्थ सीधे-सीधे उस बात को नहीं साबित कर पा रहे हों जो इनके भीतर छुपा है पर यह तो स्पष्ट ही हो रहा है कि कुछ अनजाना सा अर्थ बड़े ही खूबसूरत शब्दों में छुपाकर सामने रखा गया है। इन शब्दों में छुपी पूरी बहस को लड़का अथवा लड़की के दायरे से बाहर आकर देखना पड़ेगा।
यहाँ तार्किक रूप से अवलोकन करने से पहले इस शब्द-विन्यास पर विचार करें तो और भी बेहतर होगा। पहला शब्द फ्रेंड्स यानि कि दोस्त, अब आइये और देखिये आसपास की दोस्ती की परिभाषा। दो विषमलिंगी आपस में मिलते हैं, कालेज के दिनों में अथवा अपने अन्य कामकाजी दिनों में। आपसी मुलाकातों का दौर बढ़ता है और प्यार जैसा शब्द जन्म लेता है। जन्म तो शायद उसने पहली मुलाकात में ही ले लिया था पर जुबान पर आया कुछ दिनों के बाद। प्यार परवान चढ़ा तो ठीक नहीं तो दोनों ‘दोस्ती तो निभा ही सकते हैं’ जैसे वाक्य के साथ अपने रिश्तों का पटाक्षेप करते हैं। (पता नहीं रिश्तों का पटाक्षेप होता भी है या नहीं?)
अब दोस्ती उस रूप में नहीं होती जो जन्म-जन्मान्तर की बातों पर विचार करे। इस हाथ ले उस हाथ दे वाली बात यहाँ भी लागू होती है। शारीरिक सम्बन्ध अब हौवा नहीं रह गये हैं। दो विपरीत लिंगियों में दोस्ती की कई बार शुरुआत सेक्स के आधार पर ही होती देखी गई है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्यों महानगरों के पार्क, चैराहे शाम ढलते ही जोड़ों की गरमी से रोशन होने लगते हैं? दोस्ती का ये नया संस्करण है।
अब शब्द आता है ‘वेनिफिट्स’ क्या और कैसा? इसको बताने की आवश्यकता नहीं। महानगरों में चल रहे मेडीकल सेंटर में होते गर्भपात ही बता रहे हैं कि किस वेनिफिट्स की बात की जा रही है। ये बहुत ही साधारण सी बात है कि यदि हमारे रिश्तों की बुनियाद आपसी शर्तों के आधार पर काम कर रही है तो उसमें हम भावनाओं को कैसे सहेज सकते हैं?
देखा जाये तो अभी इन शब्दों की संस्कृति का चलन कस्बों, छोटे शहरों आदि में नहीं हुआ है। यदि हुआ भी होगा तो उसका स्वरूप अभी वैसा नहीं है जो इन शब्दों का मूल है। महानगरों में जहाँ तन्हाई है, मकान मिलने की समस्या है, परिवहन की समस्या है, कामकाज के समय निर्धारण की समस्या है, कार्य के स्वरूप में दिन-रात का कोई फर्क नहीं है वहाँ इस तरह के सम्बन्ध बड़ी ही आसानी से बनते देखे जाते हैं। सहजता से कुछ भी कहीं भी मिल जाने की स्थिति ने इस प्रकार के रिश्तों को और भी तवज्जो दी है।
किसी के सामने कोई जिम्मेवारी वाला भाव नहीं। माँग और आपूर्ति का सिद्धान्त यहाँ पूरी तरह से लागू होता है। अब इस तरह का निर्धारण कतई काम नहीं करता कि वो लड़का है या लड़की। दोनों की अपनी जरूरतें हैं, दोनों के अपने तर्क हैं, दोनों की अपनी शर्तें हैं जो पूरा करे वही फ्रेंड अन्यथा कोई दूसरा रिश्ता देखे।
अभी हमें इन रिश्तों की गहराई में जाना होगा और देखना होगा कि हम जिस समाज की कल्पना कर रहे हैं वह किस प्रकार के रिश्तों से बनता है? यह सार्वभौम सत्य है कि आज के युग में परिवारों के टूटने का चलन तेजी से बढ़ा है। लड़के और लड़कियों में कार्य करने की, घर से बाहर रह कर कुछ करने की इच्छा प्रबल हुई है ऐसे में अन्य जरूरतों के साथ-साथ शरीर ने भी अपनी जरूरत के अनुसार रिश्तों को स्वीकारना सीखा है। भारतीय संस्कृति के नाम की दुहाई देकर हम मात्र हल्ला मचाते रहते हैं पर मूल में जाने की कोशिश नहीं करते। बात हाथ से निकलती तब समझ में आती है जब हमारे सामने माननीय न्यायालय आकर खड़े हो जाते हैं, जैसा कि धारा 377 पर हुआ।
फ्रेंड्स विद वेनिफिट्स को युवा वर्ग, वह वर्ग जिसकी ये जरूरत है स्वीकार चुका है क्योंकि समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग आज प्रत्येक कार्य के ऊपर सेक्स को महत्व दे रहा है।
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‘Friends with benefits’ जैसी अवधारणा जिस परिभाषा के अर्न्तगत आती है, उसे रिश्ता कह पाना थोडा मुश्किल है. ना कोई भावना, ना कोई लगाव, ना कोई जिम्मेदारी, इस ‘रिश्ते’ के यह तीनो पहलू ही इसके किसी प्रकार का रिश्ता होने की संभावना को समाप्त कर देते हैं.
कल्पना कीजिये, किसी नगर में अकेला रहने वाला व्यक्ति स्त्री या पुरुष अगर सख्त बीमार हो तो क्या वो कभी अपने friend with benefits को बुला पायेगा, अगर बुला लिया तो रिश्ते की मूल अवधारणा ही समाप्त हो गयी और अगर नहीं तो महसूस होने वाली बेचारगी कैसी होगी, आप स्वयं कल्पना कीजिये.
अब दूसरा पहलू, अगर बुलाने पर भी जो दूसरा शख्स है वो आये या नहीं…अगर आता है, तो रिश्ता भावनात्मक लगाव की ओर मुड़ जायेगा और अगर नहीं आता, तो बीमार साथी कभी उसे दिल से माफ़ नहीं कर सकता.
यह समझ पाना थोडा मुश्किल है की कैसे दो अजनबी सिर्फ शारीरिक रूप से एक हो जाएँ पर भावनात्मक रूप से एक दूसरे से उतने ही अपरचित रहें जैसे सड़क पर चलते दो राही. इंसान के लिए भावनात्मक जुडाव भी आवश्यक है और अगर “Friends with benefits’ रिश्ते में पड़ा हुआ व्यक्ति कहीं और भावनात्मक रिश्ता बना लेता है, फिर ऐसा प्रतीत होता है कि ‘Friends with benefits’ रिश्ता एक self destructive relationship है, इसमें निहित सारे तत्व इसे स्वयं ही समाप्त होने की ओर अग्रसर करते हैं. अब यह हालत पर निर्भर है की यह रिश्ता भावनात्मक मोड़ ले जाये...या फिर समाप्त हो जाये...पर शायद यह रिश्ता समाप्त होते होते व्यक्ति के अंतर्मन में उस हिस्से को भी मार जायेगा जहाँ कभी स्नेह के फूल खिलने थे.
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भारतीय परिवेश मे "फ्रेंड्स विद बेनिफिट्स" एक नया शब्द है. मै नहीं जानता कितने लोग खुल कर बात करेंगे पर इतना जरूर है कि ये शुरुआत तो नई है ही यह वाक्य फ्रेंड्स विद बेनिफिट्स का मतलब है दो लोग जो बिना संवेदना, दायित्वबोध या जिम्मेदारी के शारीरिक आनंद के लिए सेक्स सम्बन्ध बनने को राजी हों. हम चूंकि एक बंद समाज हैं इसलिए इस के नैतिक पक्ष की ओर भी ध्यान देना होगा.
भारत मे तो सेक्स को केवल आनंद का मार्ग ही नहीं वरन वंश वृद्धि के दायित्व की पूर्ती का साधन माना गया है, ऐसे मे इस तरह के मात्र आनंद प्रधान प्रस्ताव या चर्चा कहाँ तक मान्य होगी ये देखने वाली बात है. बात सिर्फ मौज मजे की होती तो कोई बात नहीं पर अपने में यह कई नए बिंदु खडा करती है विमर्श और चर्चा के. आखिर सेक्स पर ही बात आकर क्यों रुक जाती है ? क्या सेक्स करने के बाद आदमी अपने अपने रस्ते जा सकता है बिना किसी भावना के, अनुभूति या संवेदना के?
शायद यह कल्पना मे भी संभव न हो कि आनंद, उल्लास, असफलता, ग्लानी या विजय की भावनाएं न जगती हों शारीरिक संबंधों के बाद. शायद पशुओं मे ऐसा हो सकता हो पर मनुष्य जाती में संभावनाएं कम ही बनती है इस आत्मकेंद्रित परिवेश और समाज मे भी. फिर मनुष्य सामाजिक प्राणी है, आवश्यकता पूर्ती के बाद पल्ला झाड़ कर चल भी दिया तो कुछ न कुछ पुरस्कार प्रतिदान वह देता ही है. शारीरिक सम्बन्ध कभी कभी ऐसे हो जाते है कि फ्रेंड्स विद बेनिफिट की परिधि में आने लगते हैं इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता.
आजकल इन्टरनेट की मित्रता के दौर में काफी कुछ ऐसा हो सकता है पर जितनामै जानता हूँ उसके आधार पर कह सकता हूँ कि ऐसे तात्कालिक संबंधों में भीकहीं न कहीं भावनात्मकता तो होती ही है. पहले प्रेम, संपर्क या भावः फिरशारीरिक लगाव ,शायद ऐसा ही होता होगा / सवाल सैद्धांतिक विवेचना का नहीं, सही और गलत का है, पर अपना मत भी मन भी कम महत्त्व पूर्ण नहीं. बहस कीशुरुआत हो चुकी है, आने वाले दिनों में बात बढेगी, सवाल उठाये जायेंग , पुराने सम्बन्ध नए लेबल में देखे जायेंगे!
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१.नारीवाद २.समलैंगिकता३.क़ानून (LAW)
४. आज़ादी बड़ी बहस है?(FREEDOM)
५. हिन्दी भाषा (HINDI)
६. धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद
७. बहस नहीं विचार कीजिये "आतंकवाद मिटाएँ "
८. आम चुनाव और राजनीति (ELECTION & POLITICS)
९. एक चिट्ठी देश के नाम
१०. फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स (FRIENDS WITH BENEFITS)
११. घरेलू हिंसा (DOMESTIC VIOLENCE)१२....क्या जरूरी है शादी से पहले?
१३. उल्टा तीर शाही शादी (शादी पर बहस- Debate on Marriage)
आतंकवाद और हम भारत के लोग
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[प्रणाम]
समूची दुनिया में हमारे मुल्क ने आतंक की भयावह त्रासदी को जितना अधिक झेला है
, उतना शायद विश्व के किसी और देश ने इस पीड़ा को नही झेला है । आतंकवाद...
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