उसका मन चीत्कार कर उठा. कब तक आखिर कब तक वह यह सब सहती रहेगी? किसी को उस पर दया न आती न पडोसियों को ससुराल वालो को न पीहर वालों को. रोज पिटना, गाली सुनना उसकी नियति थी. फिर उसने बहुत ही कठोर कदम उठाया, एक दिन अपने बच्चों समेत खुदकुशी कर ली उसने...ऎसी ही बातें हमें रोजमर्रा में सुनने को मिल जाती है. स्त्रियों का घर में मार खाना वो भी ऎसी महिलाओ को कथित समाज में कही न कही किसी न किसी मुकाम पर है फिर अनपढ व कमजोर तबके की महिलाएं कोई अतिशयोक्ति नही?
तुलसी दास ने भी शायद क्या सोच कर यह लिखा होगा, ढोर, गंवार, शुद्र, पशु, नारी यह सब ताडन के अधिकारी ।। वह इसलिए कि उनकी पत्नी ने उन्हे दुत्कार दिया था. इसे पुरूषों ने अपने ब्रहृमास्त्र बना लिया। उन्होने तो गोया यह मान लिया कि जब तक स्त्रियों को प्रताडित न किया जाये उन पर बाहुबल न दिखाया जाये वह उन्हें आदमी समझेगी ही नही। मै एक उदाहरण देती हूँ - जब हम कालेज में पढते थे. हिंदी की एक प्राध्यापिका जो बहुत सख्त थी. छात्र-छात्राओ के साथ अपने पति द्वारा प्रताडित थी. उस वजह से उसका तनाव उनके काम पर स्पष्ट था. उन्ही के घर में एक छोटी लडकी नौकरानी का काम करती थी, वह अध्यापिका उसको मारती थी. मेरे कहने का मतलब एक आदमी के अपनी पत्नी पर हिंसा करने का खामियाजा और कितने लोग भुगते हैं ? यदि कोई स्त्री या पुरूष कही घर में किसी के साथ भी हिंसक हो, बच्चों के साथ भाई-बहनों के साथ पत्नी या पति के साथ जानवरों के साथ तो कही न कही वह मानसिक रूप से अस्वस्थ है ।
कई बार हिंसक होना उनकी परवरिश व माहौल पर भी निर्भर करता है. इसके साथ ही कई बार कुछ लोगो में कमियां रह जाती है या उसका कुंठाग्रसित होना जो अपनी झुनझुलाहट हिंसक तरीके से रिश्तों में निकालते है। और जन्म होता है घरेलू हिंसा का. जो एक बार शुरू यदि हो गयी तो इसकी परिनति बहुत ही दुखद व भयावह होती है. जो घरेलू हिंसा को सहता है वह भी उतना ही दोषी है जितना एक हिंसा करने वाला.
घरेलू हिसां के एक से एक भयानक उदाहरण है. जिनका हम वर्णन भी नही कर सकते. सबसे अधिक मामले होते है बच्चों के साथ महिलाओं के साथ व बुजुर्ग भी अपवाद नही रहे. सबसे अधिक इसकी शिकार महिलाए है, वह भी विवाह उपरान्त उनके पति द्वारा ससुराल के अन्य सदस्य जैसे ननद, जेठानी, देवरानी, देवर, जेठ एंव सास-ससुर।
प्रेम विवाह करने वाली महिलाओ इस तरह की दिक्कतों का सामना करना होता है क्योकि प्रेमविवाह करने वाले जब घर गृहस्थी के चक्रव्यूह मे पडते है उनका प्रेम रफूचक्कर हो जाता है. किसी का सहयोग न मिल पाने के कारण पुरूष को कही न कही यह बोध होने लगता है कि यह स्त्री ही इसका कारण है व कुछ भी सहन न कर पाने की स्थिति में वह अपनी साथी पर ही गुस्सा तथा अपनी हर गलती के लिए अपनी पत्नी पर ही हाथ उठाना शुरू कर देता है. कई बार हीनभावना से ग्रसित हो अपने साथी के प्रति हिसंक हो उठता है।
अब हमें चाहिए कि अगर घरेलू हिंसा के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़ी जाए तो लड़ी ही जाए...ताकि समाज की यह कुरुती जड़ से मिट सके! बेशक इसमें वक़्त लग सकता है मगर आज घरेलू हिंसा पर बात करके कल से खामोश होना घरेलू हिंसा को बल के सिवा कुछ नहीं देगा और यूं ही इंसानों की बेज़ारियाँ होती रहेंगी. औरतों को इंसान समझने की मानवीयता अपने अन्दर पुरुष वर्ग को जगानी ही होगी वहीं औरतों को भी (कई मामलों में) हिंसक होने से बचने का संतुलन बनाना होगा. आइये हम सिर्फ बात न करें इक पूरी मुहिम चलायें, इक पूरी लड़ाई लड़ाएं और घरेलू हिंसा को जड़ से मिटायें.
जारी है...
उल्टा तीर के लिए
[सुनीता शर्मा]
घरेलू हिंसा अभिशाप है. यह आम तौर पर कानून की गिरफ्त से बाहर भी है. क्योंकि इसके शिकार असुरक्षा की भावना के कारण आगे नहीं आते. यह सामाजिक ढाचे का विकृत स्वरूप है. आगे आना होगा
जवाब देंहटाएंराज्य कानून बना कर उत्तर्दायित्वा की इतिश्री कर लेता है ,किंतु कानून के सही प्रवर्तन के लिए जागरूकता की आवश्यकता होती है श्रीमती के नाम ghazal
जवाब देंहटाएंआपकी बातें जायज़ हैं, परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया है, जिसे सम्पन्न होने में समय लगता है। पर एक बार यह प्रक्रिया शुरू हो जाए, तो फिर समाप्त हुए बिना नहीं रूकती। खुशी की बात यह है कि प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। सम्पन्न कब होगी, यह कोई नहीं बता सकता।
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परा मनोविज्ञान- यानि की अलौकिक बातों का विज्ञान।
ओबामा जी, 75 अरब डालर नहीं, सिर्फ 70 डॉलर में लादेन से निपटिए।
मेरा तो यह मानना है कि घरेलू हिंसा के पींछे पुरूष का महिला पर हावी होने की मानसिकता है सबसे पहले इन कथित पुरूषों की घटिया मानसि कता को बदलना निहायत जरूरी है हर बेटे की मां का भी यह फर्ज है वह उसे महिलाओं का सम्मान करना करना बचपन से ही सिखाये......
जवाब देंहटाएंhttp://sunitakhatri.blogspot.com
http://swastikachunmun.blogspot.com
बहुत अच्छा और सच के करीव, शव्दों की शानदार कोशिश वुराई का नकाव उतारने की, बहस जो भी हो दायरों में वटी मानसिकता हर हाल में इंसान को जोड़ने की जगह तोड़ने का काम कुछ जल्दी ही कर जाती है, स्त्री - पुरुष, आम-खास , बच्चे - बड़े के बटवारे से बेहतर है सोच का बटवारा हो, अहसासों और संवेदनशील स्पंदन के आधार पे बटवारा हो, हर वर्ग में वेहतर लोग मिल जातें हैं, हर वर्ग में इंसान और हेवान नज़र आतें हैं, इंसान की मानसिकता उसे वहसी जैसा चरित्र देजाती है, ये जरूरी नहीं कि वर्ग विशेष से चरित्र का प्रमाण मिल जाएगा, वह्सीपन करने वाला ही वहसी कहलायेगा, कागज़ कोरा हो तो लिखाई आसान अन्यथा शव्दों की भीड़ में अक्षर वेअर्थ, बिना अहसास के, ध्वनी वनकर रह जायेंगें....
जवाब देंहटाएंघरेलू हिंसा के बारे मे जो विचार यहां मेरे इस आलेख पर रखे उसके लिए मै अभारी हूं मै अमित जी की अभारी हूं जो उन्होने अपनी बात लोगो तक पहुचाने के लिए सार्थक प्लेटफार्म उल्टा तीर को बनाया। हमारे समाज मे बहुत विसंगतिया है जिनकी वजह से दूसरी बहुत सी समस्या पैदा हो जाती है इससे बचने के उपाय व कारणों का जिक्र बहस की अन्य आने वाली पोस्टों में.....
जवाब देंहटाएंआज भारत भर मे विशेष कर ग्रामीण क्षेत्रो मे हर दिन नर और नारी दोनों ही सह रहे है गरीबी ,अशिक्षा ,और भुखमरी जिसके कारन यदि उन्हें अपने अधिकार पता भी तब भी दो वक़्त की रोटी के लिए चुपचाप वो ये सब सह रहे है
जवाब देंहटाएंजय श्री राम
U r right we all are facing man and womwan too but on which cost?
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा और सच के करीव, शव्दों की शानदार कोशिश वुराई का नकाव उतारने की, बहस जो भी हो दायरों में वटी मानसिकता हर हाल में इंसान को जोड़ने की जगह तोड़ने का काम कुछ जल्दी ही कर जाती है, स्त्री - पुरुष, आम-खास , बच्चे - बड़े के बटवारे से बेहतर है सोच का बटवारा हो, अहसासों और संवेदनशील स्पंदन के आधार पे बटवारा हो, हर वर्ग में वेहतर लोग मिल जातें हैं, हर वर्ग में इंसान और हेवान नज़र आतें हैं,
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