
जिधर से भी प्रवाह हो लपटों का,
आग के उस मसीहा से मुझको भी मिलाया जाए।"

एक चीत्कार मेरे मनसे उठ रही है....हम क्यों खामोश हैं ? क्यों हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं ? कहाँ गयी हमारी वेदनाके प्रती संवेदनशीलता??? " आईये हाथ उठाएँ हमभी, हम जिन्हें रस्मों दुआ याद नही, रस्मे मुहोब्बतके सिवा, कोई बुत कोई ख़ुदा याद नही...!अपनी तड़प को मै कैसे दूर दूरतक फैलाऊँ ? ?क्या हम अपाहिज बन गए हैं ? कोई जोश नही बचा हमारे अन्दर ? कुछ रोज़ समाचार देखके और फिर हर आतंकवादी हमलेको हम इतिहासमे दाल देते हैं....भूल जाते हैं...वो भयावह दिन एक तारीख बनके रह जाते हैं ?अगले हमले तक हम चुपचाप समाचार पत्र पढ़ते रहते हैं या टीवी पे देखते रहते हैं...आपसमे सिर्फ़ इतना कह देते हैं, "बोहोत बुरा हुआ...हो रहा...पता नही अपना देश कहाँ जा रहा है? किस और बढ़ रहा है या डूब रहा है?" अरे हमही तो इसके खेवनहार हैं !

अपनी माता अपने शहीदोंके, अपने लड़लोंके खूनसे भीग रही है.....और हम केवल देख रहे हैं या सब कुछ अनदेखा कर रहे हैं, ये कहके कि क्या किया जा सकता है...? हमारी माँ को हम छोड़ कौन संभालेगा? कहाँ है हमारा तथाकथित भाईचारा ? देशका एक हिस्सा लहुलुहान हो रहा है और हम अपने अपने घरोंमे सुरक्षित बैठे हैं ?
कल देर रात, कुछ ११/३० के करीब एक दोस्तका फ़ोन आया...उसने कहा: तुम्हारी तरफ़ तो सब ठीक ठाक हिना ? कोई दंगा फसाद तो नही?
मै :" ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ? कहीं कुछ फसाद हुआ है क्या?"
वो :" कमल है ! तुमने समाचार नही देखे?"
मै :" नही तो....!
वो : " मुम्बईमे ज़बरदस्त बम धमाके हुए जा रहे हैं...अबके निशानेपे दक्षिण मुंबई है....."
मैंने फ़ोन काट दिया और टीवी चला दिया...समाचार जारी थे...धमाकोंकी संख्या बढ़ती जा रही थी ...घयालोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था, मरनेवालों की तादात बढ़ती जा रही थी....तैनात पोलिस करमी और उनका साक्षात्कार लेनेके लिए बेताब हो रहे अलग, अलग न्यूज़ चॅनल के नुमाइंदे...पूछा जा रहा था रघुवंशीसे( जिन्हें मै बरसों से जानती हूँ...एक बेहद नेक और कर्तव्यतत्पर पोलिस अफसर कहलाते हैं। वर्दीमे खड़े )...उनसे जवाबदेही माँगी जा रही थी," पोलिस को कोई ख़बर नही थी...?"
मुझे लगा काश कोई उन वर्दी धारी सिपहियोंको शुभकामनायें तो देता....उनके बच्चों, माँ ओं तथा अन्य परिवारवालोंका इस माध्यमसे धाडस बंधाता...! किसीकेभी मन या दिमागमे ये बात नही आयी॥? इसे संवेदन हीनता न कहें तो और के कहा जा सकता है ? उन्हें मरनेके लिए तनख्वाह दी जा रही है तो कोई हमपे एहसान कर रहें हैं क्या??कहीँ ये बात तो किसीके दिमागमे नही आयी? गर आयी हो तो उससे ज़्यादा स्वार्थी, निर्दयी और कोई हो नही सकता ये तो तय है।
गर अंदेसा होता कि कहाँ और कैसे हमला होगा तो क्या महकमा खामोश रहता ?सन १९८१/८२ सीमे श्री. धरमवीर नामक, एक ICS अफसरने, नेशनल पोलिस कमिशन के तेहेत कई सुझाव पेश किए थे....पुलिस खातेकी बेह्तरीके लिए, कार्यक्षमता बढानेके लिए कुछ कानून लागू करनेके बारेमे, हालिया क़ानून मे बदलाव लाना ज़रूरी बताया था। बड़े उपयुक्त सुझाव थे वो। पर हमारी किसी सरकार ने उस कमिशन के सुझावोंपे गौर करनेकी कोई तकलीफ नही उठाई !सुरक्षा कर्मियोंके हाथ बांधे रखे, आतंकवादियोंके पास पुलिसवालोंके बनिस्बत कई गुना ज़्यादा उम्दा शत्र होते, वो गाडीमे बैठ फुर्र हो जाते, जबकि कांस्टेबल तो छोडो , पुलिस निरीक्षक के पासभी स्कूटर नही होती ! २/३ साल पहलेतक जब मोबाईल फ़ोन आम हो चुके थे, पुलिस असफरोंको तक नही मुहैय्या थे, सामान्य कांस्टेबल की तो बात छोडो ! जब मुहैय्या कराये तब शुरुमे केवल मुम्बईके पुलिस कमिशनर के पास और डीजीपी के पास, सरकारकी तरफ़ से मोबाइल फोन दिए गए। एक कांस्टबल की कुछ समय पूर्व तक तनख्वाह थी १५००/-.भारतीय सेनाके जवानोंको रोजाना मुफ्त राशन मिलता है...घर चाहे जहाँ तबादला हो मुहैय्या करायाही जाता है। बिजलीका बिल कुछ साल पहलेतक सिर्फ़ रु. ३५/- । अमर्यादित इस्तेमाल। बेहतरीन अस्पताल सुविधा, बच्चों के लिए सेंट्रल स्कूल, आर्मी कैंटीन मे सारी चीज़ें आधेसे ज़्यादा कम दाम मे। यकीनन ज्यादातर लोग इस बातसे अनभिद्न्य होंगे कि देशको स्वाधीनता प्राप्त होनेके पश्च्यात आजतलक आर्मीके बनिस्बत ,पुलिस वालोंकी अपने कर्तव्य पे तैनात रहते हुए, शहीद होनेकी संख्या १० गुनासे ज़्यादा है !आजके दिन महानगरपलिकाके झाडू लगानेवालेको रु.१२,०००/- माह तनख्वाह है और जिसके जिम्मे हम अपनी अंतर्गत सुरक्षा सौंपते हैं, उसे आजके ज़मानेमे तनख्वाह बढ़के मिलने लगी केवल रु.४,०००/- प्रति माह ! क्यों इतना अन्तर है ? क्या सरहद्पे जान खोनेवालाही सिर्फ़ शहीद कहलायेगा ? आए दिन नक्षल्वादी हमलों मे सैंकडो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं, उनकी मौत शहादत मे शुमार नही?उनके अस्प्ताल्की सुविधा नही। नही बछोंके स्कूल के बारेमे किसीने सोचा। कई बार २४, २४ घंटे अपनी ड्यूटी पे तैनात रहनेवाले व्यक्तीको क्या अपने बच्चों की , अपने बीमार, बूढे माँ बापकी चिंता नही होती होगी?उनके बच्चे नही पढ़ लिख सकते अच्छी स्कूलों मे ?
मै समाचार देखते जा रही थी। कई पहचाने और अज़ीज़ चेहरे वर्दीमे तैनात, दौड़ भाग करते हुए नज़र आ रहे थे...नज़र आ रहे थे हेमंत करकरे, अशोक आमटे, दाते...सब...इन सभीके साथ हमारे बड़े करीबी सम्बन्ध रह चुके हैं। महाराष्ट्र पुलिस मेह्कमेमे नेक तथा कर्तव्य परायण अफ्सरोंमे इनकी गिनती होती है। उस व्यास्त्तामेभी वे लोग किसी न किसी तरह अखबार या समाचार चनालोंके नुमैन्दोंको जवाब दे रहे थे। अपनी जानकी बाजी लगा दी गयी थी। दुश्मन कायरतासे छुपके हमला कर रहा था, जबकि सब वर्दीधारी एकदम खुलेमे खड़े थे, किसी इमारतकी आड्मे नही...दनादन होते बम विस्फोट....दागी जा रही गोलियां...मै मनही मन उन लोगोंकी सलामतीके लिए दुआ करती रही....किसीभी वार्ताहरने इन लोगोंके लिए कोई शुभकामना नही की...उनकी सलामतीके लिए दुआ करें, ऐसा दर्शकों को आवाहन नही दिया!
सोचो तो ज़रा...इन सबके माँ बाप बेहेन भाई और पत्निया ये खौफनाक मंज़र देख रही होंगी...! किसीको क्या पता कि अगली गोली किसका नाम लिखवाके आयेगी?? किस दिशासे आयेगी...सरहद्पे लड़नेवालोंको दुश्मंका पता होता है कि वो बाहरवाला है, दूसरे देशका है...लेकिन अंतर्गत सुरक्षा कर्मियोंको कहाँसे हमला बोला जाएगा खबरही नही होती..!
मुझे याद आ रहा था वो हेमंत करकरे जब उसने नयी नयी नौकरी जों की थी। हम औरंगाबादमे थे। याद है उसकी पत्नी...थोड़ी बौखलाई हुई....याद नासिक मे प्रशिक्षण लेनेवाला अशोक और दातेभी...वैसे तो बोहोत चेहरे आँखोंकी आगेसे गुज़रते जा रहे थे। वो ज़माने याद आ रहे थे...बड़े मनसे मै हेमंतकी दुल्हनको पाक कला सिखाती थी( वैसे बोहोतसे अफसरों की पत्नियोंको मैंने सिखाया है.. और बोहोत सारी चीजोंसे अवगत कराया है। खैर)औपचारिक कार्यक्रमोंका आयोजन करना, बगीचों की रचना, मेज़ लगना, आदी, आदी....पुलिस अकादमी मे प्रशिक्षण पानेवाले लड़कोंको साथ लेके पूरी, पूरी अकादेमी की ( ४०० एकरमे स्थित) landscaping मैंने की थी....!ये सारे मुझसे बेहद इज्ज़त और प्यारसे पेश आते...गर कहूँ कि तक़रीबन मुझे पूजनीय बना रखा था तो ग़लत नही होगा...बेहद adore करते ।
इन लोगोंको मै हमेशा अपने घर भोजनपे बुला लिया करती। एक परिवारकी तरह हम रहते। तबादलों के वक्त जब भी बिछड़ते तो नम आँखों से, फिर कहीँ साथ होनेकी तमन्ना रखते हुए।
रातके कुछ डेढ़ बजेतक मै समाचार देखती रही...फिर मुझसे सब असहनीय हो गया। मैंने बंद कर दिया टीवी । पर सुबह ५ बजेतक नींद नही ई....कैसे, कैसे ख्याल आते गए...मन कहता रहा, तुझे कुछ तो करना चाहिए...कुछ तो...
सुबह १० बजेके करीब मुम्बईसे एक फ़ोन आया, किसी दोस्तका। उसने कहा: "जानती हो न क्या हुआ?"
मै :"हाँ...कल देर रात तक समाचार देख रही थी...बेहद पीड़ा हो रही है..मुट्ठीभर लोग पूरे देशमे आतंक फैलाते हैं और..."
वो:" नही मै इस जानकारीके बारेमे नही कह रहा....."
मै :" तो?"
वो :" दाते बुरी तरहसे घायल है और...और...हेमंत और अशोक मारे गए...औरभी न जाने कितने..."
दिलसे एक गहरी आह निकली...चाँद घंटों पहले मैंने और इन लोगोंके घरवालोने चिंतित चेहरोंसे इन्हें देखा होगा....देखते जा रहे होंगे...और उनकी आँखोंके सामने उनके अज़ीज़ मारे गए.....बच्चों ने अपनी अंखोसे पिताको दम तोड़ते देखा...पत्नी ने पतीको मरते देखा...माँओं ने , पिताने,अपनी औलादको शहीद होते देखा...बहनों ने भाईको...किसी भाई ने अपने भाईको...दोस्तों ने अपने दोस्तको जान गँवाते देखा....! ये मंज़र कभी वो आँखें भुला पाएँगी??
मै हैरान हूँ...परेशान हूँ, दिमाग़ काम नही कर रहा...असहाय-सि बैठी हूँ.....इक सदा निकल रही दिलसे.....कोई है कहीँ पे जो मेरा साथ देगा ये पैगाम घर घर पोहचाने के लिए??हमारे घरको जब हमही हर बलासे महफूज़ रखना पड़ता है तो, हमारे देशको भी हमेही महफूज़ बनाना होगा....सारे मासूम जो मरे गए, जो अपने प्रियजनोको बिलखता छोड़ गए, उनके लिए और उनके प्रियाजनोको दुआ देना चाहती हूँ...श्रद्धा सुमन अर्जित करना चाहती हूँ...साथ कुछ कर गुज़रनेका वादाभी करना चाहती हूँ....!या मेरे ईश्वर, मेरे अल्लाह! मुझे इस कामके लिए शक्ती देना।
शमाजी का आलेख अच्छा लगा !!
जवाब देंहटाएंउम्मीद है शमाजी के सीधे सच्चे और ह्रदय से निकले आलेख भविष्य में भी पढने को मिलते रहेंगे
हर कोई चाहता है .आंतक से निर्णायक लडाई हो
शुक्रिया शमाजी को उल्टा तीर का हिस्सा बनाने के लिए
शमाजी आपने बहुत सही लिखा .
भाई आज फ़िर आपने आतंकवाद का घिनोना रूप देखा क्या ये सब ऐसे ही चलता रहेगा क्यों आख़िर क्यों १६ से ३५ साल के लोग आतंकवादी बन जाते है और क्यों नही हम उन्हें आतंकवादी बनने से नही रोक पाते हम, सरकार सब मिल कर ऐसा होने से रोलने के लिए कृत संकल्प ले
जवाब देंहटाएंअमित जी जो आम भारतीय (इसमे वो सब आम है जिसके आगे पीछे कोई पुलिश वाला सुरक्षा के लिए नही होता )इस तरह सहीद हुए है उनको नमन करे
जय हिंद
हमारी माँ को हम छोड़ कौन संभालेगा? कहाँ है हमारा तथाकथित भाईचारा ? यही सवाल का जवाब भी है की जब आजकल के हम अपने जन्म देने वाली माता -पिता के लिए दुःख दर्द महसूस नही कर सकते तो देश रुपी माता का दर्द कैसे महसूस करेगे आपके ये सवाल भी बिल्कुल उचित है महानगरपलिका के झाडू लगाने वाले को रु.१२,०००/- माह तनख्वाह है और जिसके जिम्मे हम अपनी अंतर्गत सुरक्षा सौंपते हैं, उसे आज के ज़माने मे तनख्वाह बढ़के मिलने लगी केवल रु.10,०००/- प्रति माह ! क्यों इतना अन्तर है ? क्या सरहद्पे जान खोने वाला ही सिर्फ़ शहीद कहलायेगा ? आए दिन नक्षल्वादी हमलों मे सैंकडो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं, उनकी मौत शहादत मे शुमार नही?
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छे विचार है और हम भीड़ से निकलकर आपके साथ है
" शोक व्यक्त करने के रस्म अदायगी करने को जी नहीं चाहता. गुस्सा व्यक्त करने का अधिकार खोया सा लगता है जबआप अपने सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पाते हैं. शायद इसीलिये घुटन !!!! नामक चीज बनाई गई होगी जिसमें कितनेही बुजुर्ग अपना जीवन सामान्यतः गुजारते हैं........बच्चों के सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पा कर. फिर हम उस दौर सेअब गुजरें तो क्या फरक पड़ता है..शायद भविष्य के लिए रियाज ही कहलायेगा।"
जवाब देंहटाएंसमीर जी की इस टिपण्णी में मेरा सुर भी शामिल!!!!!!!
प्राइमरी का मास्टर
पहले बंगलौर, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली और अब फिर मुंबई । और आगे हो सकता है की उनका अगला निशाना वाराणसी या कोई और शहर हो। ऐसी खबरें अब धीरे-धीरे आम बात होती जा रही हैं। जिस तरह एक के बाद एक आतंकवादी देश की किसी भी कोने में बम बिस्फोट कर रहे हैं। ऐसा लगता है की वर्तमान सरकार में आतंकवाद से लड़ने की शत प्रतिशत इच्छा शक्ति का आभाव है। सुरक्षा एजेंसियां भी वक्त रहते उन्हें रोकने में सफल नही हो पा रही हैं। भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई पर बुधवार रात अब तक का सबसे बड़ा चरमपंथी हमला हुआ है........... हर समस्या की कोई ना कोई जड़ होती है और उसमें हिंदू- मुसलमान या ईसाई रंग ढूंढना ग़लत है। ऐसे में क्या राजनीतिक नेतृत्व की ज़िम्मेदारी इस ख़तरनाक मानसिकता को बढ़ने से रोकने की नहीं है। क्या सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि समस्या की जड़ को समझने की कोशिश करे और उसी के अनुसार कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए जिससे समाज को बँटने से रोका जा सके. भारत के शीर्ष नेता इसे कब तक हल कर पायेंगे? ...इसी तरह के अनगिनत सवाल मेरे मन में आज उठ रहे हैं। और शायद ...........भारत की आम जनता के मन में भी उठते होंगे। ऐसे में एक आम आदमी क्या करे। उसका क्या कसूर है। हर जगह वो ही निशाना क्यो बनता है?आतंकवाद और आतंकवादियों का सिवाय आतंक और दहशत फैलाने के अलावा और कोई धर्म नही होता। उन्हें किसी के विकास और समृद्धि से कोई लेना-देना नही है। आख़िर यह बात लोगों के समझ में कब आएगी? शायद अब वह समय आ गया है की जब केन्द्र सरकार को देश की आतंरिक सुरक्षा को लेकर कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए। एक संघीय जाच एजेंसी होनी चाहिए। जिसे हर तरह से जाच करने की आज़ादी मिलनी चाहिए।सभी जाच एजेंसिया एक कमांड के तले कार्य करे तो बेहतर परिणाम की उम्मीद की जा सकती है। केन्द्र सरकार को चाहिए की वह सभी राज्यों के साथ मिलकर एक ऐसी अंतर्राज्यीय जांच एजेंसी का निर्माण करे जो हर तरह से परिपूर्ण हो। जो पूरे देश में एक समान रूप से लागू हो। या फिर, भारत की सर्वोच्च जाच संस्था सी बी आई को अमेरिका की जाच संस्था ऍफ़ बी आई जैसी पावर और अधिकार मिलने चाहिए। ताकि वह किसी भी प्रकार के राजनैतिक दबाव में न आए और स्वतंत्र और निष्पक्ष जाच करे। भारत की पुलिस तंत्र को और मजबूत करने की बेहद ज़रूरत है। हर राज्य की पुलिस और केन्द्रीय खुफिया एजेंसियों में अच्छा और फास्ट तालमेल होना चाहिए। वैसे तो भारत ही नही पूरा विश्व आतंकवाद से जूझ रहा है, लेकिन चूँकि भारत सदा से शान्ति का पुजारी रहा है, और वो आगे भी विश्व समुदाय को शान्ति और अहिंसा का मार्ग दिखाता रहेगा। कुछ लोग इसे भारत की कमजोरी समझते हैं। पर हमारी सरकार को कुछ ऐसा करना चाहिए की विश्व समुदाय इसे भारत को अपनी कमजोरी के रूप न देखे। नही तो देश की स्थिति दिनों-दिन और भी बदतर होती जायेगी और आम जनता में भय और दहशत का माहौल व्याप्त हो जाएगा। लेकिन ऐसा लगता हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों की इच्छा शक्ति मे ही कुछ कमी है।
जवाब देंहटाएंFrom- मेरी पत्रिका
www.meripatrika.co.cc
हेमन्त जी ने अपनी शहादत से एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है. लेकिन बात थोडी सी कटु अवश्य है, लेकिन लिखना भी आवश्यक है-विस्फोट पर हेमन्त जी के बारे में एक लेख छ्पा है, जिसमें रा में रहते हुये उनके कार्य पर कुछ टिप्पणी की गयी है, यदि ऐसा वास्तव में हुआ है तो यह कहना चाहूंगा कि काश उस समय ही कुछ अनुशासनात्मक कार्रवाई की गयी होती तो आज हमलों से पहले ही आतंकी गिरफ्तार कर लिये गये होते और शायद हेमन्त जी आज जीवित होते.
जवाब देंहटाएंअक्षय,अमर,अमिट है मेरा अस्तित्व वो शहीद मैं हूं
जवाब देंहटाएंमेरा जीवित कोई अस्तित्व नही पर तेरा जीवन मैं हूं
पर तेरा जीवन मैं हूं......
poojiniye shama ji ko shat-shat naman....
unka bete ke jaisa huin.....
jitna kahuinga kam hoga.....
maa ke liye bete ki aur bete ke liye maa ki bhawnaay kya hongi khud shama ji samajhti hain us pyar ko us dard ko us ehsaas ko........aur
amit ji ka bahut shukrguzaar huin unhe bhi apne bhai jaisa manta huin.....
सादर अभिवादन अमित जी
जवाब देंहटाएंबडे दिनों बाद आपसे बात हो रही है , मुझे पूरा यकीन है कि अब तक आप मुझे भूल चुके होंगे
चलिये पिछले दिनो के दुखद दौर मे लिखने मे आये ये २-३ मुक्तक देखें .
हर दिल मे हर नज़र मे , तबाही मचा गये
हँसते हुए शहर में , तबाही मचा गए
हम सब तमाशबीन बने देखते रहे
बाहर के लोग घर में , तबाही मचा गए
और
राजधानी चुप रही ..
किसलिए सारे जावानों की जवानी चुप रही
क्यों हमारी वीरता की हर कहानी चुप रही
आ गया है वक्त पूछा जाय आख़िर किसलिए
लोग चीखे , देश रोया , राजधानी चुप रही
और
हमको दिल्ली वापस दो
सारा बचपन ,खेल खिलौने ,
चिल्ला-चिल्ली वापस दो
छोडो तुम मैदान हमारा ,
डन्डा - गिल्ली वापस दो
ऐसी - वैसी चीजें देकर ,
अब हमको बहलाओ मत
हमने तुमको दिल्ली दी थी ,
हमको दिल्ली वापस दो...
चलिये शेश फ़िर कभी
आपकी प्रतिक्रियाओं का इन्तज़ार रहेगा
डॉ . उदय 'मणि '
684महावीर नगर द्वितीय
94142-60806
(सार्थक और समर्थ रचनाओं के लिये देखें )
http://mainsamayhun.blogspot.com