आतंकवाद. आतंकवाद और सिर्फ़ आतंकवाद. कुछ महीनों से सिर्फ़ यही एक शब्द कानों में घर किए हुए है. जिससे न सिर्फ़ कान हैरान और परेशान हैं बल्कि शरीर का ज़र्रा-ज़र्रा इसके दर्द और आतंक से डरा हुआ, सहमा हुआ और ज़ख्मों से सरोवर है. और आतंक है कि दिन-ब-दिन फसल की भांति बढता है जा रहा है. कमसे कम मुंबई में हुए इस कृत की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, पर ऐसा मानना अब अतिशयोक्ति नहीं कि अब कहीं भी कभी भी कुछ भी बुरा घटित हो सकता है. और एक बात जो साफ़ होनी ही चाहिए कि आतंकियों के निशाने पर अब सिर्फ़ आम आदमी ही नहीं बल्कि हरेक वर्ग का आदमी है. वो चाहे अमीर हो या फ़िर गरीब. आतंकवादियों का निशाना और लक्ष्य सिर्फ़ तबाही और आतंक फैलाना है. दूसरी अहम् बात; आतंकवाद को सिर्फ़ सरकार ही ख़तम कर सकती है, यह हमारी बड़ी भूल हो सकती है. वैसे भी सरकार ही हर मसले की जिम्मेदार नहीं हो सकती. लेकिन सरकार का एक भी मुलाजिम अगर आतंकवादियों का साथ देता है, वो फ़िर चाहे किसी भी रूम में क्यों न हो; वो भी आतंकवादी ही कहलाया जाना चाहिए. यह वक़्त अब ही नहीं आया है...बल्कि यह वक़्त अविरल धारा की तरह बह रहा है...जब हम कुछ कर सकते हैं...आतंकवाद के ख़िलाफ़ अमन और चैन के लिए. हमें ज़रूरत है सोये हुए लोगों को जगाने की और आतंक के ख़िलाफ़ एक ऐसी मुहिम छेड़नी की जो क्रान्ति ला सके...सचमुच आज हिन्दुस्तान को फ़िर से एक बड़ी क्रांती की जरूरत है जबकि आतंकवाद न तो पुराना मुद्दा है और नाहीं सिर्फ़ हिन्दुस्तान का.

मुंबई के आतंकी हमले से विचलित हुईं बुजुर्ग महिला (हम नौज़वान होकर भी सुस्ता क्यों रहे, जबकि हमें देश का भविष्य और न जाने क्या-क्या नहीं कहा जाता?)
"शमा" जी का यह लेख "
मेरी आवाज़ सुनो!" आपके लिए जो शायद आपके अन्दर उस भाव को उस बेदना को महसूस करा सके, जिन्हें लोग जी रहे हैं. साथ ही इक जोश भर सके..आतंकवाद के ख़िलाफ़...
बहस अभी भी जारी है...यकीन करें आपका योगदान और बोलना कतई जाया न जायेगा.
"जनमानुष संबंधित हर आग में मुझे भी झुलसाया जाए,
जिधर से भी प्रवाह हो लपटों का,
आग के उस मसीहा से मुझको भी मिलाया जाए।"
अमित के. सागर
मेरी आवाज़ सुनो!
अपनी आवाज़ उठाओ....कुछ मिलके कहें, एकही आवाज़ मे, कुछ करें कि आतंकवादी ये न समझे, उनकी तरह हमभी कायर हैं.....अपनेआपको बचाके रख रहे हैं...और वो मुट्ठीभर लोग तबाही मचा रहे हैं.....हम तमाशबीनोंकी तरह अपनीही बरबादीका नज़ारा देख रहे हैं !एक भीनी, मधुर पर सशक्त झंकार उठे....अपने मनकी बीनासे...पता चले इन दरिन्दोंको की हमारी एकता अखंड है...हमारे दिलके तार जुड़े हुए हैं....!
एक चीत्कार मेरे मनसे उठ रही है....हम क्यों खामोश हैं ? क्यों हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं ? कहाँ गयी हमारी वेदनाके प्रती संवेदनशीलता??? " आईये हाथ उठाएँ हमभी, हम जिन्हें रस्मों दुआ याद नही, रस्मे मुहोब्बतके सिवा, कोई बुत कोई ख़ुदा याद नही...!अपनी तड़प को मै कैसे दूर दूरतक फैलाऊँ ? ?क्या हम अपाहिज बन गए हैं ? कोई जोश नही बचा हमारे अन्दर ? कुछ रोज़ समाचार देखके और फिर हर आतंकवादी हमलेको हम इतिहासमे दाल देते हैं....भूल जाते हैं...वो भयावह दिन एक तारीख बनके रह जाते हैं ?अगले हमले तक हम चुपचाप समाचार पत्र पढ़ते रहते हैं या टीवी पे देखते रहते हैं...आपसमे सिर्फ़ इतना कह देते हैं, "बोहोत बुरा हुआ...हो रहा...पता नही अपना देश कहाँ जा रहा है? किस और बढ़ रहा है या डूब रहा है?" अरे हमही तो इसके खेवनहार हैं !

अपनी माता अपने शहीदोंके, अपने लड़लोंके खूनसे भीग रही है.....और हम केवल देख रहे हैं या सब कुछ अनदेखा कर रहे हैं, ये कहके कि क्या किया जा सकता है...? हमारी माँ को हम छोड़ कौन संभालेगा? कहाँ है हमारा तथाकथित भाईचारा ? देशका एक हिस्सा लहुलुहान हो रहा है और हम अपने अपने घरोंमे सुरक्षित बैठे हैं ?
कल देर रात, कुछ ११/३० के करीब एक दोस्तका फ़ोन आया...उसने कहा: तुम्हारी तरफ़ तो सब ठीक ठाक हिना ? कोई दंगा फसाद तो नही?
मै :" ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ? कहीं कुछ फसाद हुआ है क्या?"
वो :" कमल है ! तुमने समाचार नही देखे?"
मै :" नही तो....!
वो : " मुम्बईमे ज़बरदस्त बम धमाके हुए जा रहे हैं...अबके निशानेपे दक्षिण मुंबई है....."
मैंने फ़ोन काट दिया और टीवी चला दिया...समाचार जारी थे...धमाकोंकी संख्या बढ़ती जा रही थी ...घयालोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था, मरनेवालों की तादात बढ़ती जा रही थी....तैनात पोलिस करमी और उनका साक्षात्कार लेनेके लिए बेताब हो रहे अलग, अलग न्यूज़ चॅनल के नुमाइंदे...पूछा जा रहा था रघुवंशीसे( जिन्हें मै बरसों से जानती हूँ...एक बेहद नेक और कर्तव्यतत्पर पोलिस अफसर कहलाते हैं। वर्दीमे खड़े )...उनसे जवाबदेही माँगी जा रही थी," पोलिस को कोई ख़बर नही थी...?"
मुझे लगा काश कोई उन वर्दी धारी सिपहियोंको शुभकामनायें तो देता....उनके बच्चों, माँ ओं तथा अन्य परिवारवालोंका इस माध्यमसे धाडस बंधाता...! किसीकेभी मन या दिमागमे ये बात नही आयी॥? इसे संवेदन हीनता न कहें तो और के कहा जा सकता है ? उन्हें मरनेके लिए तनख्वाह दी जा रही है तो कोई हमपे एहसान कर रहें हैं क्या??कहीँ ये बात तो किसीके दिमागमे नही आयी? गर आयी हो तो उससे ज़्यादा स्वार्थी, निर्दयी और कोई हो नही सकता ये तो तय है।
गर अंदेसा होता कि कहाँ और कैसे हमला होगा तो क्या महकमा खामोश रहता ?सन १९८१/८२ सीमे श्री. धरमवीर नामक, एक ICS अफसरने, नेशनल पोलिस कमिशन के तेहेत कई सुझाव पेश किए थे....पुलिस खातेकी बेह्तरीके लिए, कार्यक्षमता बढानेके लिए कुछ कानून लागू करनेके बारेमे, हालिया क़ानून मे बदलाव लाना ज़रूरी बताया था। बड़े उपयुक्त सुझाव थे वो। पर हमारी किसी सरकार ने उस कमिशन के सुझावोंपे गौर करनेकी कोई तकलीफ नही उठाई !सुरक्षा कर्मियोंके हाथ बांधे रखे, आतंकवादियोंके पास पुलिसवालोंके बनिस्बत कई गुना ज़्यादा उम्दा शत्र होते, वो गाडीमे बैठ फुर्र हो जाते, जबकि कांस्टेबल तो छोडो , पुलिस निरीक्षक के पासभी स्कूटर नही होती ! २/३ साल पहलेतक जब मोबाईल फ़ोन आम हो चुके थे, पुलिस असफरोंको तक नही मुहैय्या थे, सामान्य कांस्टेबल की तो बात छोडो ! जब मुहैय्या कराये तब शुरुमे केवल मुम्बईके पुलिस कमिशनर के पास और डीजीपी के पास, सरकारकी तरफ़ से मोबाइल फोन दिए गए। एक कांस्टबल की कुछ समय पूर्व तक तनख्वाह थी १५००/-.भारतीय सेनाके जवानोंको रोजाना मुफ्त राशन मिलता है...घर चाहे जहाँ तबादला हो मुहैय्या करायाही जाता है। बिजलीका बिल कुछ साल पहलेतक सिर्फ़ रु. ३५/- । अमर्यादित इस्तेमाल। बेहतरीन अस्पताल सुविधा, बच्चों के लिए सेंट्रल स्कूल, आर्मी कैंटीन मे सारी चीज़ें आधेसे ज़्यादा कम दाम मे। यकीनन ज्यादातर लोग इस बातसे अनभिद्न्य होंगे कि देशको स्वाधीनता प्राप्त होनेके पश्च्यात आजतलक आर्मीके बनिस्बत ,पुलिस वालोंकी अपने कर्तव्य पे तैनात रहते हुए, शहीद होनेकी संख्या १० गुनासे ज़्यादा है !आजके दिन महानगरपलिकाके झाडू लगानेवालेको रु.१२,०००/- माह तनख्वाह है और जिसके जिम्मे हम अपनी अंतर्गत सुरक्षा सौंपते हैं, उसे आजके ज़मानेमे तनख्वाह बढ़के मिलने लगी केवल रु.४,०००/- प्रति माह ! क्यों इतना अन्तर है ? क्या सरहद्पे जान खोनेवालाही सिर्फ़ शहीद कहलायेगा ? आए दिन नक्षल्वादी हमलों मे सैंकडो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं, उनकी मौत शहादत मे शुमार नही?उनके अस्प्ताल्की सुविधा नही। नही बछोंके स्कूल के बारेमे किसीने सोचा। कई बार २४, २४ घंटे अपनी ड्यूटी पे तैनात रहनेवाले व्यक्तीको क्या अपने बच्चों की , अपने बीमार, बूढे माँ बापकी चिंता नही होती होगी?उनके बच्चे नही पढ़ लिख सकते अच्छी स्कूलों मे ?
मै समाचार देखते जा रही थी। कई पहचाने और अज़ीज़ चेहरे वर्दीमे तैनात, दौड़ भाग करते हुए नज़र आ रहे थे...नज़र आ रहे थे हेमंत करकरे, अशोक आमटे, दाते...सब...इन सभीके साथ हमारे बड़े करीबी सम्बन्ध रह चुके हैं। महाराष्ट्र पुलिस मेह्कमेमे नेक तथा कर्तव्य परायण अफ्सरोंमे इनकी गिनती होती है। उस व्यास्त्तामेभी वे लोग किसी न किसी तरह अखबार या समाचार चनालोंके नुमैन्दोंको जवाब दे रहे थे। अपनी जानकी बाजी लगा दी गयी थी। दुश्मन कायरतासे छुपके हमला कर रहा था, जबकि सब वर्दीधारी एकदम खुलेमे खड़े थे, किसी इमारतकी आड्मे नही...दनादन होते बम विस्फोट....दागी जा रही गोलियां...मै मनही मन उन लोगोंकी सलामतीके लिए दुआ करती रही....किसीभी वार्ताहरने इन लोगोंके लिए कोई शुभकामना नही की...उनकी सलामतीके लिए दुआ करें, ऐसा दर्शकों को आवाहन नही दिया!
सोचो तो ज़रा...इन सबके माँ बाप बेहेन भाई और पत्निया ये खौफनाक मंज़र देख रही होंगी...! किसीको क्या पता कि अगली गोली किसका नाम लिखवाके आयेगी?? किस दिशासे आयेगी...सरहद्पे लड़नेवालोंको दुश्मंका पता होता है कि वो बाहरवाला है, दूसरे देशका है...लेकिन अंतर्गत सुरक्षा कर्मियोंको कहाँसे हमला बोला जाएगा खबरही नही होती..!
मुझे याद आ रहा था वो हेमंत करकरे जब उसने नयी नयी नौकरी जों की थी। हम औरंगाबादमे थे। याद है उसकी पत्नी...थोड़ी बौखलाई हुई....याद नासिक मे प्रशिक्षण लेनेवाला अशोक और दातेभी...वैसे तो बोहोत चेहरे आँखोंकी आगेसे गुज़रते जा रहे थे। वो ज़माने याद आ रहे थे...बड़े मनसे मै हेमंतकी दुल्हनको पाक कला सिखाती थी( वैसे बोहोतसे अफसरों की पत्नियोंको मैंने सिखाया है.. और बोहोत सारी चीजोंसे अवगत कराया है। खैर)औपचारिक कार्यक्रमोंका आयोजन करना, बगीचों की रचना, मेज़ लगना, आदी, आदी....पुलिस अकादमी मे प्रशिक्षण पानेवाले लड़कोंको साथ लेके पूरी, पूरी अकादेमी की ( ४०० एकरमे स्थित) landscaping मैंने की थी....!ये सारे मुझसे बेहद इज्ज़त और प्यारसे पेश आते...गर कहूँ कि तक़रीबन मुझे पूजनीय बना रखा था तो ग़लत नही होगा...बेहद adore करते ।
इन लोगोंको मै हमेशा अपने घर भोजनपे बुला लिया करती। एक परिवारकी तरह हम रहते। तबादलों के वक्त जब भी बिछड़ते तो नम आँखों से, फिर कहीँ साथ होनेकी तमन्ना रखते हुए।
रातके कुछ डेढ़ बजेतक मै समाचार देखती रही...फिर मुझसे सब असहनीय हो गया। मैंने बंद कर दिया टीवी । पर सुबह ५ बजेतक नींद नही ई....कैसे, कैसे ख्याल आते गए...मन कहता रहा, तुझे कुछ तो करना चाहिए...कुछ तो...
सुबह १० बजेके करीब मुम्बईसे एक फ़ोन आया, किसी दोस्तका। उसने कहा: "जानती हो न क्या हुआ?"
मै :"हाँ...कल देर रात तक समाचार देख रही थी...बेहद पीड़ा हो रही है..मुट्ठीभर लोग पूरे देशमे आतंक फैलाते हैं और..."
वो:" नही मै इस जानकारीके बारेमे नही कह रहा....."
मै :" तो?"
वो :" दाते बुरी तरहसे घायल है और...और...हेमंत और अशोक मारे गए...औरभी न जाने कितने..."
दिलसे एक गहरी आह निकली...चाँद घंटों पहले मैंने और इन लोगोंके घरवालोने चिंतित चेहरोंसे इन्हें देखा होगा....देखते जा रहे होंगे...और उनकी आँखोंके सामने उनके अज़ीज़ मारे गए.....बच्चों ने अपनी अंखोसे पिताको दम तोड़ते देखा...पत्नी ने पतीको मरते देखा...माँओं ने , पिताने,अपनी औलादको शहीद होते देखा...बहनों ने भाईको...किसी भाई ने अपने भाईको...दोस्तों ने अपने दोस्तको जान गँवाते देखा....! ये मंज़र कभी वो आँखें भुला पाएँगी??
मै हैरान हूँ...परेशान हूँ, दिमाग़ काम नही कर रहा...असहाय-सि बैठी हूँ.....इक सदा निकल रही दिलसे.....कोई है कहीँ पे जो मेरा साथ देगा ये पैगाम घर घर पोहचाने के लिए??हमारे घरको जब हमही हर बलासे महफूज़ रखना पड़ता है तो, हमारे देशको भी हमेही महफूज़ बनाना होगा....सारे मासूम जो मरे गए, जो अपने प्रियजनोको बिलखता छोड़ गए, उनके लिए और उनके प्रियाजनोको दुआ देना चाहती हूँ...श्रद्धा सुमन अर्जित करना चाहती हूँ...साथ कुछ कर गुज़रनेका वादाभी करना चाहती हूँ....!या मेरे ईश्वर, मेरे अल्लाह! मुझे इस कामके लिए शक्ती देना।