दरअसल, ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हमारे देश में कई ऐसे क़ानून है जो समय के साथ अपनी प्रासंगिकता को खो चुके है। बावजूद इसके ये आज भी बदस्तूर क़ायम है। समय में बदलाव के साथ क़ानून में भी बदलाव किए जाने चाहिए ।
उन क़ानूनों को सिरे से रद्द कर दिया जाए जो आज के परिप्रेक्ष्य में सार्थक नही है। लेकिन होता क्या है नए नए क़ानून बनते है, क़ानून की धाराएं बढ़ जाती है, किताबे मोटी हो जाती है। और घूम फिर के क़ानून फिर लोगो के बीच में एक अभूझ पहेली बन जाता है ।
क़ानून जिनके लिए है , जो क़ानून से प्रभावित होते है। उनमे मैं आप हम सभी आते है। तब क्या
ये ज़रूरी नही हो जाता कि क़ानून की भाषा इसके क़ायदे हमें उस रूप में उपलब्ध हो जिसे हम सब सरलता से समझ सके।“उल्टा तीर” पर कानून की प्रासंगिकता को लेकर शुरू की गई बहस इसलिए भी प्रासंगिक लगती है। सवाल ये भी है क़ानून की प्रासंगिगता को चुनौती देगा कौन! निसंदेह ये भी हम सभी को समाज को मिलकर तय करना होगा। सवाल हमें ही उठाने होंगे, इसलिए भी क्योंकि बहस अभी बाकी है मेरे दोस्त !!!
बहस में भाग लेने वाले सभी प्रिय पाठकों, सहभागियों को मेरा शुक्रिया व् आभार;
खुल कर भाग लीजिये। निसंकोच अपनी बात कीजिये.
आपकी राय अमूल्य है! आपकी चीख़ तर्क है! न्याय शून्य है! हम सबको बेहतर समाज बेहतर जिंदगी पुन्य तुल्य है!
शेष हैं आख़री २ दिन, "उल्टा तीर" के मंच पर दिल खोलकर शिरकत कीजिये (जश्ने-आजादी-०८) में अपने अमूल्य विचारों के साथ; जश्ने-आजादी के पत्रिका में;
साथ में अपनी तस्वीर व् संक्षिप्त परिचय जरुर भेजें।
प्रासंगिक और महत्वपूर्ण मुद्दा !
जवाब देंहटाएंgood, i sent you replay very soon
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण मुद्दा..
जवाब देंहटाएंकानून एक ऐसा शब्द जो प्रयोग तो किया जाता है इन्साफ दिलाने के लिए और किसे इन्साफ दिलाना है उसे भी नहीं पता कौन मुज्लिम है वो जो गरीब है या वो जो पाप करता है और नोटों के बल पर कानून को खरीद लेता है सजा किसे मिलती उस गरीब को उस लाचारी को वो दोनों तरफ से शिकार ही बनता है पहेले उस अंधी अमीरी का फिर उस अंधे कानून का इन्हें कौन निशाना बनाये इस अंधे कानून के लिए कौन सा कटघरा बनाया जाये बता सकते हैं आप?अक्षय-मन
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